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स्थानाङ्गसूत्रम्
३. अव्यवशमितप्राभृत— कलह को शान्त नहीं करने वाला (४७६)। ४७७– तओ कप्पंति वाइत्तए, तं जहा विणीए, अविगतीपडिबद्धे, विओसवियपाहुडे।
तीन को वाचना देना कल्पता है—विनीत, विकृति-अप्रतिबद्ध और व्यवशमितप्राभृत (४७७)। दुःसंज्ञाप्य-सुसंज्ञाप्य
४७८- तओ दुसण्णप्पा पण्णत्ता, तं जहा–दुढे, मूढे, वुग्गाहिते।
तीन दुःसंज्ञाप्य (दुर्बोध्य) कहे गये हैं—दुष्ट, मूढ (विवेकशून्य) और व्युद्ग्राहित—कदाग्रही के द्वारा भड़काया हुआ (४७८)।
४७९- तओ सुसण्णप्पा पण्णत्ता, तं जहा—अदुढे, अमूढे, अवुग्गाहिते।
तीन सुसंज्ञाप्य (सुबोध्य) कहे गये हैं—अदुष्ट, अमूढ और अव्युद्ग्राहित (४७९)। . माण्डलिक-पर्वत-सूत्र
४८०- तओ मंडलिया पव्वता पण्णत्ता, तं जहा—माणुसुत्तरे, कुंडलवरे, रुयगवरे।
तीन माण्डलिक (वलयाकार वाले) पर्वत कहे गये हैं—मानुषोत्तर, कुण्डलवर और रुचकवर पर्वत (४८०)। महतिमहालय-सूत्र
४८१- तओ महतिमहालया पण्णत्ता, तं जहा जंबुद्दीवए मंदरे मंदरेसु, सयंभूरमणे समुद्दे समुद्देसु, बंभलोए कप्पे कप्पेसु।
तीन महतिमहालय (अपनी-अपनी कोटि में सबसे बड़े) कहे गये हैं—मन्दर पर्वतों में जम्बूद्वीप का सुमेरु पर्वत, समुद्रों में स्वयम्भूरमण समुद्र और कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प (४८१)। कल्पस्थिति-सूत्र
४८२- तिविधा कप्पठिती पण्णत्ता, तं जहा—सामाइयकप्पठिती, छेदोवट्ठावणियकप्पठिती, णिव्विसमाणकप्पठिती।
अहवा–तिविहा कप्पठिती पण्णत्ता, तं जहा—णिविट्ठकप्पद्विती, जिणकप्पट्टिती, थेरकप्पद्विती।
कल्पस्थिति तीन प्रकार की कही गई है—सामायिक कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति और निर्विशमान कल्पस्थिति। ___अथवा कल्पस्थिति तीन प्रकार की कही गई है—निर्विष्टकल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति (४८२)।
विवेचन— साधुओं की आचार-मर्यादा को कल्पस्थिति कहते हैं। इस सूत्र के पूर्व भाग में जिन तीन कल्पस्थितियों का नाम-निर्देश किया गय. है, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
१. सामायिक कल्पस्थिति— सामायिक नामक संयम की कल्पस्थिति अर्थात् काल-मर्यादा को सामायिक