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तृतीय स्थान - चतुर्थ उद्देश
तेणियं करेमाणे, हत्थातालं दलयमाणे ।
तीन अवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य कहे गये हैं— साधर्मिकों की चोरी करने वाला, अन्यधार्मिकों की चोरी करने वाला और हस्तताल देने वाला ( मारक प्रहार करने वाला) (४७३)।
विवेचन — लघु प्रायश्चित्त को उद्घातिम और गुरु प्रायश्चित्त को अनुद्घातिम कहते हैं । अर्थात् दिये गये प्रायश्चित्त में गुरु द्वारा कुछ कमी करना उद्घात कहलाता है तथा जितना प्रायश्चित्त गुरु द्वारा दिया जावे उसे उतना ही पालन करना अनुद्घात कहा जाता है। जैसे १ मास के तप में अढाई दिन कम करना उद्धात प्रायश्चित्त है और पूरे मास भर तप करना अनुद्घात प्रायश्चित्त है । हस्तकर्म, मैथुनसेवन और रात्रिभोजन करने वालों को अनुद्घात प्रायश्चित्त दिया जाता है। पारांचित प्रायश्चित्त का आशय बहिष्कृत करना है। वह बहिष्कार लिंग (वेष ) से, उपाश्रय ग्राम आदि क्षेत्र से नियतकाल से तथा तपश्चर्या से होता है। तत्पश्चात् पुन: दीक्षा दी जाती है। जो विषय सेवन से या कषायों की तीव्रता से दुष्ट है, स्त्यानर्द्धि निद्रावाला एवं परस्पर मैथुन-सेवी साधु है, उसे पारांचित प्रायश्चित्त दिया जाता है। तपस्या-पूर्वक पुनः दीक्षा देने को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त कहते हैं। जो साधर्मी जनों के या अन्य धार्मिक के वस्त्र - पात्रादि चुराता है या किसी साधु आदि को मारता पीटता है, ऐसे साधु को यह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। किस प्रकार के दोषसेवन से कौन सा प्रायश्चित्त दिया जाता है, इसका विशद विवेचन बृहत्कल्प आदि छेदसूत्रों में देखना चाहिए ।
प्रव्रज्यादि - अयोग्य - सूत्र
४७४ [ तओ णो कप्पंति पव्वावेत्तए, तं जहा पंडए, वातिए, कीवे । ]
[तीन को प्रव्रजित करना नहीं कल्पता है— नपुंसक, वातिक' (तीव्र वात रोग से पीड़ित) और क्लीव (वीर्य-धारण में अशक्त) को (४७४) ।]
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४७५ [ ओणो कप्पंति ] मुंडावित्तए, सिक्ख वित्तए, उवट्ठावेत्तए, संभुंजित्तए, संवासित्तए, तं जहा पंडए, वातिए, कीवे ।
तीनको मुण्डित करना, शिक्षण देना, महाव्रतों में आरोपित करना, उनके साथ संभोग करना (आहार आदि का सम्बन्ध रखना) और सहवास करना नहीं कल्पता है— नपुंसक, वातिक और क्लीव को (४७५)। अवाचनीय - वाचनीय - सूत्र
४७६— तओ अवायणिज्जा पण्णत्ता, तं जहा— अविणीए, विगतीपडिबद्धे, अविओसवितपाहुडे । तीन वाचना देने के अयोग्य कहे गये हैं—
१.
१. अविनीत — विनय - रहित, उद्दण्ड ।
२. विकृति - प्रतिबद्ध दूध, घी आदि रसों के सेवन में आसक्त ।
किसी निमित्त से वेदोदय होने पर जो मैथुनसेवन किए बिना न रह सकता हो, उसे यहां वातिक समझना चाहिए। 'वातित' के स्थान पर पाठान्तर है 'वाहिय' जिसका अर्थ है रोगी । !