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तृतीय स्थान- चतुर्थ उद्देश
४४४ - तिहमतिक्कमाणं—अलोएजा, पडिक्कमेजा, शिंदेज्जा, गरहेज्जा, [विउद्देजा, विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेजा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं] पडिवजेजा, तं जहा— णाणातिक्कमस्स, सणातिक्कमस्स, चरित्तातिक्कमस्स।
ज्ञानातिक्रम, दर्शनातिक्रम और चारित्रातिक्रम इन तीनों प्रकारों के अतिक्रमों की आलोचना करनी चाहिए, प्रतिक्रमण करना चाहिए, निन्दा करनी चाहिए, गर्दा करनी चाहिए, (व्यावर्तन करना चाहिए, विशोधि करनी चाहिए, पुनः वैसा नहीं करने का संकल्प करना चाहिए। तथा सेवन किये हुए अतिक्रम दोषों की निवृत्ति के लिए यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म) स्वीकार करना चाहिए (४४४)।
४४५ - [तिण्हं वइक्कमाणं आलोएजा, पडिक्कमेजा, शिंदेजा, गरहेजा, विउद्देजा, विसोहेजा, अकरणयाए अब्भुटेजा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जेज्जा, तं जहाणाणवइक्कमस्स, सणवइक्कमस्स, चरित्तवइक्कमस्स।
[ज्ञान-व्यतिक्रम, दर्शन-व्यतिक्रम, चारित्र-व्यतिक्रम इन तीनों प्रकारों के व्यतिक्रमों की आलोचना करनी चाहिए, प्रतिक्रमण करना चाहिए, निन्दा करनी चाहिए, गर्दा करनी चाहिए, व्यावर्तन करना चाहिए, विशोधि करनी चाहिए, पुनः वैसा न करने का संकल्प करना चाहिए तथा यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए (४४५)।
४४६- तिहमतिचाराणं—आलोएजा, पडिक्कमेजा, णिंदेजा, गरहेजा, विउद्देजा, विसोहेजा, अकरणयाए अब्भुटेजा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकर्म पडिवज्जेजा, तं जहाणाणतिचारस्स, सणातिचारस्स, चरित्तातिचारस्स ।।
__ [ज्ञानातिचार, दर्शनातिचार और चारित्रातिचार इन तीनों प्रकारों के अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए, प्रतिक्रमण करना चाहिए, निन्दा करनी चाहिए, गर्दा करनी चाहिए, व्यावर्तन करना चाहिए, विशोधि करनी चाहिए, पुनः वैसा नहीं करने का संकल्प करना चाहिए तथा यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए (४४६)।
४४७- तिण्हमणायाराणं आलोएज्जा, पडिक्कमेजा, शिंदेज्जा, गरहेजा, विउट्टेजा, विसोहेजा, अकरणयाए अब्भुटेजा, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवजेज्जा, तं जहा–णाणअणायारस्स, दंसणअणायारस्स, चरित्त-अणायारस्स।
ज्ञान-अनाचार, दर्शन-अनाचार और चारित्र-अनाचार इन तीनों प्रकारों के अनाचारों की आलोचना करनी चाहिए, प्रतिक्रमण करना चाहिए, निन्दा करनी चाहिए, गर्दा करनी चाहिए, व्यावर्तन करना चाहिए, विशोधि करनी चाहिए, पुनः वैसा नहीं करने का संकल्प करना चाहिए तथा यथोचित प्रायश्चित्त एवं तपःकर्म स्वीकार करना चाहिए (४४७)]। प्रायश्चित्त-सूत्र
४४८–तिविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते, तं जहा—आलोयणारिहे, पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे।
प्रायश्चित्त तीन प्रकार का कहा गया है—आलोचना के योग्य, प्रतिक्रमण के योग्य और तदुभय (आलोचना और प्रतिक्रमण) के योग्य (४४८)।
विवेचन— जिसके करने से उपार्जित पाप का छेदन हो, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। उसके आगम में यद्यपि दश भेद बतलाये गये हैं, तथापि यहां पर त्रिस्थानक के अनुरोध से आदि के तीन ही प्रायश्चित्तों का प्रस्तुत सूत्र में निर्देश किया गया है। गुरु के सम्मुख अपने भिक्षाचर्या आदि में लगे दोषों के निवेदन करने को आलोचना कहते हैं।