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स्थानाङ्गसूत्रम्
में ज्ञानाराधन के आठों अंगों का अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगपूर्वक निरतिचार परिपालन करना उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है। किसी दो-एक अंग के बिना ज्ञानाभ्यास करना मध्यम ज्ञानाराधना है। सातिचार ज्ञानाभ्यास करना जघन्य ज्ञानाराधना है। सम्यक्त्व के निःशंकित आदि आठों अंगों के साथ निरतिचार सम्यग्दर्शन को धारण करना उत्कृष्ट दर्शनाराधना है। किसी दो-एक अंग के बिना सम्यक्त्व को धारण करना मध्यम दर्शनाराधना है। सातिचार सम्यक्त्व को धारण करना जघन्य दर्शनाराधना है। पांच समिति और तीन गुप्ति आठों अंगों के साथ चारित्र का निरतिचार परिपालन करना उत्कृष्ट चारित्राराधना है। किसी एकादि अंग से हीन चारित्र का पालन करना मध्यम चारित्राराधना है और सातिचार चारित्र का पालन करना जघन्य चारित्राराधना है। संक्लेश-असंक्लेश सूत्र
४३८–तिविधे संकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा—णाणसंकिलेसे, दंसणसंकिलेसे, चरित्तसंकिलेसे। ४३९ - [तिविधे असंकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा–णाणअसंकिलेसे, दंसणअसंकिलेसे, चरित्तअसंकिलेसे ।
संक्लेश तीन प्रकार का कहा गया है—ज्ञान-संक्लेश, दर्शन-संक्लेश और चारित्र-संक्लेश (४३८)। [असंक्लेश तीन प्रकार का कहा गया है ज्ञान-असंक्लेश. दर्शन-असंक्लेश और चारित्र-असंक्लेश (४३९)]।
विवेचन— कषायों की तीव्रता से उत्पन्न होने वाली मन की मलिनता को संक्लेश कहते हैं तथा कषायों की मन्दता से होने वाली मन की विशुद्धि को असंक्लेश कहते हैं। ये दोनों ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र में हो सकते हैं, अतः उनके तीन-तीन भेद कहे गये हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र से प्रतिपतन रूप संक्लिश्यमान परिणाम ज्ञानादि का संक्लेश है और ज्ञानाद्रि का विशुद्धिरूप विशुद्ध्यमान परिणाम ज्ञानादि का असंक्लेश है। अतिक्रमादि-सूत्र
४४०– तिविधे अतिक्कमे पण्णत्ते, तं जहा—णाणअतिक्कमे, दंसणअतिक्कमे, चरित्तअतिक्कमे। ४४१-तिविधे वइक्कमे पण्णत्ते, तं जहा—णाणवइक्कमे, सणवइक्कमे, चरित्तवइक्कमे। ४४२-तिविधे अइयारे पण्णत्ते, तं जहा—णाणअइयारे, दंसणअइयारे, चरित्तअइयारे। ४४३-तिविधे अणायारे पण्णत्ते, तं जहा–णाणअणायारे, दंसणअणायारे, चरित्तअणायारे]।
[अतिक्रम तीन प्रकार का कहा गया है—ज्ञान-अतिकर्म, दर्शन-अतिक्रम और चारित्र-अतिक्रम (४४०)। व्यतिक्रम तीन प्रकार का कहा गया है—ज्ञान-व्यतिक्रम, दर्शन-व्यतिक्रम और चारित्र-व्यतिक्रम (४४१)। अतिचार तीन प्रकार का कहा गया है—ज्ञान-अतिचार, दर्शन-अतिचार और चारित्र-अतिचार (४४२)। अनाचार तीन प्रकार का कहा गया है—ज्ञान-अनाचार, दर्शन-अनाचार और चारित्र-अनाचार (४४३)।]
विवेचन- ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आठ-आठ अंग या आचार कहे गये हैं। उनके प्रतिकूल आचरण करने का मन में विचार आना अतिक्रम कहा जाता है। इसके पश्चात् प्रतिकूल आचरण का प्रयास करना व्यतिक्रम कहलाता है। इससे भी आगे बढ़कर प्रतिकूल आंशिक आचरण करना अतिचार है और पूर्ण रूप से प्रतिकूल आचरण करने को अनाचार कहते हैं।
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क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलव्रते विलंघनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥
-अमितगति-द्वात्रिंशिका श्लोक ९