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तृतीय स्थान – तृतीय उद्देश
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एकरात्रिकी, भिक्षु-प्रतिमा का सम्यक् प्रकार से अनुपालन करने वाले अनगार के लिए तीन स्थान हितकर, शुभ, क्षम, निःश्रेयसकारी और अनुगामिता के कारण होते हैं
१. उक्त अनगार को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। २. या मनःपर्यवज्ञान प्राप्त होता है।
३. अथवा केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है (३८९)। कर्मभूमि-सूत्र
३९०- जंबुद्दीवे दीवे तओ कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा—भरहे, एरवए, महाविदेहे। ३९१– एवं– धायइसंडे दीवे पुरित्थिमद्धे जाव पुक्खरवरदीवडपच्चत्थिमद्धे।
जम्बूद्वीप नामक द्वीप में तीन कर्मभूमियां कही गई हैं—भरत-कर्मभूमि, ऐरवत-कर्मभूमि और महाविदेहकर्मभूमि (३९०)। इसी प्रकार धातकीखण्ड के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में तथा अर्धपुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी तीन-तीन कर्मभूमियां जाननी चाहिए (३९१)। दर्शन-सूत्र
३९२-तिविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा सम्मइंसणे, मिच्छइंसणे, सम्मामिच्छइंसणे। दर्शन तीन प्रकार का कहा गया है—सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यग्मिथ्यादर्शन (३९२)। ३९३ – तिविहा रुई पण्णत्ता, तं जहा सम्मरुई, मिच्छरुई, सम्मामिच्छरुई।
रुचि तीन प्रकार की कही गई है—सम्यग्रुचि, मिथ्यारुचि और सम्यग्मिथ्यारुचि (३९३)। प्रयोग-सूत्र
३९४– तिविधे पओगे पण्णत्ते, तं जहा सम्मपओगे, मिच्छपओगे, सम्मामिच्छपओगे। प्रयोग तीन प्रकार का कहा गया है—सम्यक्प्रयोग, मिथ्याप्रयोग और सम्यग्मिथ्याप्रयोग (३९४)।
विवेचन— उक्त तीन सूत्रों में जीवों के व्यवहार की क्रमिक भूमिकाओं का निर्देश किया गया है। संज्ञी जीव में सर्वप्रथम दृष्टिकोण का निर्माण होता है। तत्पश्चात् उसमें रुचि या श्रद्धा उत्पन्न होती है और तदनुसार वह कार्य करता है । इस कथन का अभिप्राय यह है कि यदि जीव में सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो गया है तो उसकी रुचि भी सम्यक् होगी और तदनुसार उसके मन, वचन, काय की प्रवृत्ति भी सम्यक् होगी। इसी प्रकार दर्शन के मिथ्या या मिश्रित होने पर उसकी रुचि एवं प्रवृत्ति भी मिथ्या एवं मिश्रित होगी। व्यवसाय-सूत्र
३९५ – तिविहे ववसाए पण्णत्ते, तं जहा धम्मिए ववसाए, अधम्मिए ववसाए, धम्पियाधम्मिए ववसाए।
अहवा–तिविधे ववसाए पण्णत्ते, तं जहा—पच्चक्खे, पच्चइए, आणुगामिए। अहवा–तिविधे ववसाए पण्णत्ते, तं जहा इहलोइए, परलोइए, इहलोइए-परलोइए।