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[१९] जूझना पड़ा था। अनुकूल-भिक्षा के अभाव में अनेक श्रुतसम्पन्न मुनि कालकवलित हो गए थे। दुष्काल समाप्त होने पर विच्छिन्न श्रुत को संकलित करने के लिए वीर निर्वाण १६० (वि.पू. ३१०) के लगभग श्रमण-संघ पाटलिपुत्र (मगध) में एकत्रित हुआ। आचार्य स्थूलिभद्र इस महासम्मेलन के व्यवस्थापक थे। इस सम्मेलन का सर्वप्रथम उल्लेख "तित्थोगाली'२४ में प्राप्त होता है। उसके बाद के बने हुए अनेक ग्रन्थों में भी इस वाचना का उल्लेख है।३५ मगध जैन-श्रमणों की प्रचारभूमि थी, किन्त द्वादशवर्षीय दृष्काल के कारण श्रमणों को मगध छोड कर समद्र-किनारे जाना पडा।३६ श्रमण किस समद्र तट पर पहंचे इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कितने ही विज्ञों ने दक्षिणी समुद्र तट पर जाने की कल्पना की है। पर मगध के सन्निकट बंगोपसागर (बंगाल की खाड़ी) भी है, जिस के किनारे उड़ीसा अवस्थित है। वह स्थान भी हो सकता है। दुष्काल के कारण सन्निकट होने से श्रमण संघ का वहां जाना संभव लगता है। पाटलिपुत्र में सभी श्रमणों ने मिलकर एक-दूसरे से पूछकर प्रामाणिक रूप से ग्यारह अंगों का पूर्णत: संकलन उस समय किया। पाटलिपुत्र में जितने भी श्रमण एकत्रित हुए थे, उनमें दृष्टिवाद का परिज्ञान किसी श्रमण को नहीं था। दृष्टिवाद जैन आगमों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग था, जिसका संकलन किये बिना अंगों की वाचना अपूर्ण थी। दृष्टिवाद के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु थे। आवश्यक-चूर्णि के अनुसार वे उस समय नेपाल की पहाड़ियों में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे।३८ संघ ने आगम-निधि की सुरक्षा के लिये श्रमणसंघाटक को नेपाल प्रेषित किया। श्रमणों ने भद्रबाह से प्रार्थना की 'आप वहाँ पधार कर श्रमणों को दष्टिवाद की ज्ञान-राशि से लाभान्वित करें।' भद्रबाहु ने साधना में विक्षेप समझते हुए प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया।
"तित्थोगालिय" के अनुसार भद्रबाहु ने आचार्य होते हुए भी संघ के दायित्व से उदासीन होकर कहा—'श्रमणो! मेरा आयुष्य काल कम रह गया है। इतने स्वल्प समय में मैं दृष्टिवाद की वाचना देने में असमर्थ हूँ। आत्महितार्थ मैं अपने आपको समर्पित कर चुका हूँ। अतः संघ को वाचना देकर क्या करना है ?"३९ इस निराशाजनक उत्तर से श्रमण उत्तप्त हुए। उन्होंने पुनः निवेदन किया-'संघ की प्रार्थना को अस्वीकार करने पर आपको क्या प्रायश्चित लेना होगा ?
____ आवश्यकचूर्णि" के अनुसार आये हुये श्रमण-संघाटक ने कोई नया प्रश्न उपस्थित नहीं किया, वह पुनः लौट गया। ३४. तित्थोगाली, गाथा ७१४ श्वेताम्बर जैन संघ, जालोर ३५. (क) आवश्यकचूर्णि भाग-२, पृ. १८७
(ख) परिशिष्ट पर्व-सर्ग-९, श्लोक ५५-५९ ३६. आवश्यकचूर्णि, भाग दो, पत्र १८७ ३७. अह बारस वारिसिओ, जाओ कूरो कयाइ दुक्कालो ।
सव्वो साहुसमूहो, तओ गओ कत्थई कोई ॥ २२॥ तदुवरमे सो पुणरवि, पाडिले पुत्ते समागओ विहिया । संघेणं सुयविसया चिंता किं कस्स अत्थिति ॥ २३॥ जं जस्स आसि पासे उद्देसज्झयणगाइ तं सव्वं । संघडियं एक्कारसंगाइं तहेव ठवियाई ॥ २४॥
-उपदेशमाला, विशेषवृत्ति पत्रांक २४१ ३८. नेपालवत्तणीए य भद्दबाहुसामी अच्छंति चौद्दसपुव्वी ।
-आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पृ. १८७ ३९. सो भणिए एव भाणिए, असिट्ठ किलिट्ठएणं वयणेणं ।
न हु ता अहं समत्थो, इण्डिं मे वायणं दाउं । अप्पटे आउत्तस्स मज्झ किं वायणाए कायव्वं । एवं च भणियमेत्ता रोसस्स वसं गया साहू ॥
-तित्थोगाली-गाथा २८, २९ ४०. भवं भणंतस्स तुहं को दंडो होई तं मुणसु ।
—तित्थोगाली ४१. तं ते भणंति दुक्कालनिमित्तं महापाणं पविट्ठोमि तो न जाति वायणं दातुं। -आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पत्रांक १८७
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