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________________ [१८] वाले लेखक को भाषाआर्य कहा है।५ स्थानाङ्ग में गण्डी२६ कच्छवी, मुष्टि, संपुटफलक,सुपाटिका इन पाँच प्रकार की पुस्तकों का उल्लेख है। दशवैकालिक हारिभद्रीया वृत्ति में प्राचीन आचार्यों के मन्तव्यों का उल्लेख करते हुए इन पुस्तकों का विवरण प्रस्तुत किया है। निशीथचूर्णि में इन का वर्णन है। टीकाकार ने पुस्तक का अर्थ ताडपत्र, सम्पुट का संचय और कर्म का अर्थ मषि और लेखनी से किया है। जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध-साहित्य में भी लेखनकला का विवरण मिलता है।२९ वैदिक वाङ्मय में भी लेखन-कलासम्बन्धी अनेक उद्धरण हैं। सम्राट सिकन्दर के सेनापति निआर्क्स ने भारत-यात्रा के अपने संस्मरणों में लिखा है कि भारतवासी लोग कागज-निर्माण करते थे। सारांश यह है—अतीतकाल से ही भारत में लिखने की परम्परा थी। किन्तु जैन आगम लिखे नहीं जाते थे। आत्मार्थी श्रमणों ने देखा—यदि हम लिखेंगे तो हमारा अपरिग्रह महाव्रत पूर्णरूप से सुरक्षित नहीं रह सकेगा, हम पुस्तकों को कहाँ पर रखेंगे, आदि विविध दृष्टियों से चिन्तन कर उसे असंयम का कारण माना। पर जब यह देखा गया कि काल की काली-छाया से विक्षुब्ध हो अनेक श्रुतधर श्रमण स्वर्गवासी बन गये, श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न होने लगी, तब मूर्धन्य मनीषियों ने चिन्तन किया। यदि श्रुतसाहित्य नहीं लिखा गया तो एक दिन वह भी आ सकता है कि जब सम्पूर्ण श्रुत-साहित्य नष्ट हो जाए। अतः उन्होंने श्रुत-साहित्य को लिखने का निर्णय लिया। जब श्रुत साहित्य को लिखने का निर्णय लिया गया, तब तक बहुत सारा श्रुत विस्मृत हो चुका था। पहले आचायों ने जिस श्रुतलेखन को असंयम का कारण माना था, उसे ही संयम का कारण मानकर पुस्तक को भी संयम का कारण माना। यदि ऐसा नहीं मानते, तो रहा-सहा श्रुत भी नष्ट हो जाता। श्रुत-रक्षा के लिए अनेक अपवाद भी निर्मित किये गये। जैन श्रमणों की संख्या ब्राह्मण-विज्ञ और बौद्ध-भिक्षुओं की अपेक्षा कम थी। इस कारण से भी श्रुत-साहित्य की सुरक्षा में बाधा उपस्थित हुई। इस तरह जैन आगम साहित्य के विच्छिन्न होने के अनेक कारण रहे हैं। बौद्ध साहित्य के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट होता है कि तथागत बुद्ध के उपदेश को व्यवस्थित करने के लिए अनेक बार संगीतियाँ हुईं। उसी तरह भगवान् महावीर के पावन उपदेशों को पुनः सुव्यवस्थित करने के लिए आगमों की वाचनाएँ हुईं। आर्य जम्बू के बाद दस बातों का विच्छेद हो गया था। श्रुत की अविरल धारा आर्य भद्रबाहु तक चलती रही। वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। जैन शासन को वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्य दुष्काल के भयंकर वात्याचक्र से २५. प्रज्ञापनासूत्र, पद-१ २६. (क) स्थानांगसूत्र, स्थान-५ (ख) बृहत्कल्पभाष्य ३/३, ८, २२ (ग) आउटलाइन्स आफ पैलियोग्राफी, जर्नल आफ यूनिवर्सिटी आफ बोम्बे, जिल्द ६, भा. ६, पृ. ८७, एच. आर. कापडिया तथा ओझा, वही पृ. ४-५६ २७. दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति पत्र-२५ २८. निशीथ चूर्णि उ. ६२ २९. राइस डैविड्स : बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ. १०८ ३०. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. २ ३१. (क) दशवकालिक चूर्णि, पृ. २१ (ख) बृहत्कल्पनियुक्ति, १४७ उ. ९३ (ग) विशेषशतक-४९ ३२. कालं पुण पडुच्च चरणकरणट्ठा अवोच्छित्ति निवित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ! —दशवैकालिक चूर्णि, पृ. २१ ३३. गणपरमोहि-पुलाए, आहारग-खवग-उवसमे कप्पे । संजय-तिय केवलि-सिज्झणाण जंबुम्मि वुच्छिन्ना ॥ -विशेषावश्यकभाष्य, २५९३
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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