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तृतीय स्थान — द्वितीय उद्देश
आर्यो! श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित कर कहा—' 'आयुष्मन्त जीव किससे भय खाते हैं ?'
गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान् महावीर के समीप आये, समीप आकर वन्दन नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार बोले
'देवानुप्रिय ! हम इस अर्थ को नहीं जान रहे हैं, नहीं देख रहे हैं। यदि देवानुप्रिय को इस अर्थ का परिकथन करने में कष्ट न हो, तो हम आप देवानुप्रिय से इसे जानने की इच्छा करते हैं । '
'आर्यो ! श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को संबोधित कर कहा—
'आयुष्मन्त श्रमणो! जीव दुःख से भय खाते हैं।'
प्रश्न – तो भगवन् ! दुःख किसके द्वारा उत्पन्न किया गया है ?
उत्तर— जीवों के द्वारा, अपने प्रमाद से उत्पन्न किया गया है।
प्रश्न- तो भगवन् ! दुःखों का वेदन (क्षय) कैसे किया जाता है ? उत्तर— जीवों के द्वारा, अपने ही अप्रमाद से किया जाता 1
३३७- अण्णउत्थ्यिा णं भंते! एवं आइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति कहणं समणाणं णिग्गंथाणं किरिया कज्जति ?
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श्रमणो !
तत्थ जा सा कडा कज्जइ, णो तं पुच्छंति । तत्थ जा सा कडा णो कज्जति, णो तं पुच्छंति । तत्थ जा सा अकडा णो कज्जति, णो तं पुच्छंति । तत्थ जा सा अकडा कज्जति, णो तं पुच्छंति । से एवं वत्तव्वं सिया ?
अकिच्चं दुक्खं, अफुसं दुक्खं, अकज्जमाणकडं दुक्खं । अकट्टु-अकट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेदेतित्ति वत्तव्वं ।
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जे ते एवमाहंसु, ते मिच्छा एवमाहंसु । अहं पुण एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पण्णवेमि एवं परूवेमिकच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं । कट्टु-कट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंतित्ति वत्तव्वयं सिया ।
भदन्त ! कुछ अन्ययूथिक (दूसरे मत वाले) ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं कि जो क्रिया की जाती है, उसके विषय में श्रमण निर्ग्रन्थों का क्या अभिमत है ? उनमें जो कृत क्रिया की जाती है, वे उसे नहीं पूछते हैं। उनमें जो कृत क्रिया नहीं की जाती है, वे उसे भी नहीं पूछते हैं। उनसे जो अकृत क्रिया नहीं की जाती है, वे उसे भी नहीं पूछते हैं । किन्तु जो अकृत क्रिया की जाती है, वे उसे पूछते हैं। उनका वक्तव्य इस प्रकार है—
१. दुःखरूप कर्म (क्रिया) अकृत्य है (आत्मा के द्वारा नहीं किया जाता ) ।
२. दुःख अस्पृश्य है (आत्मा से उसका स्पर्श नहीं होता) ।
प्रमाद का अर्थ यहां आलस्य नहीं किन्तु अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, मतिभ्रंश, धर्म का आचरण न करना और योगों की अशुभ प्रवृति है । संस्कृतटीका