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________________ १४२ स्थानाङ्गसूत्रम् करते हुए न हर्ष का अनुभव करता है और न विषाद का ही किन्तु मध्यस्थता का अनुभव करता है या मध्यस्थ रहता है। यह उसकी वीतरागता का द्योतक है। इस प्रकार संसारी जीवों की परिणति कभी रागमूलक और कभी द्वेषमूलक होती रहती है। किन्तु जिनके हृदय में विवेक रूपी सूर्य का प्रकाश विद्यमान है उनकी परिणति सदा वीतरागभावमय ही रहती है। इसी बात को उक्त १२६ सूत्रों के द्वारा विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से बहुत स्पष्ट एवं सरल शब्दों में व्यक्त किया गया है। गर्हित-स्थान-सूत्र ३१५- तओ ठाणा णिस्सीलस्स णिग्गुणस्स णिम्मेरस्स णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासस्स गरहिता भवंति, तं जहा—अस्सि लोगे गरहिते भवति, उववाते गरहिते भवति, आयाती गरहिता भवति। शील-रहित, व्रत-रहित, मर्यादा-हीन एवं प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास-विहीन पुरुष के तीन स्थान गर्हित होते हैं इहलोक (वर्तमान भव) गर्हित होता है। उपपात (देव और नारक जन्म) गर्हित होता है। (क्योंकि अकामनिर्जरा आदि किसी कारण से देवभव पाकर भी वह किल्विषिक जैसे निंद्य देवों में उत्पन्न होता है।) तथा आगामी जन्म (देव या नारक के पश्चात् होने वाला मनुष्य या तिर्यंचभव) भी गर्हित होता है वहाँ भी उसे अधोदशा प्राप्त होती है (३१५)। प्रशस्त-स्थान-सूत्र ३१६- तओठाणा सुसीलस्स सुव्वयस्स सगुणस्स समेरस्स सपच्चक्खाणपोसहोववासस्स पसत्था भवंति, तं जहा–अस्सि लोगे पसत्थे भवति, उववाए पसत्थे भवति, आजाती पसत्था भवति। सुशील, सुव्रती, सद्गुणी, मर्यादा-युक्त एवं प्रत्याख्यान-पोषधोपवास से युक्त पुरुष के तीन स्थान प्रशस्त होते हैं—इहलोक प्रशस्त होता है, उपपात प्रशस्त होता है एवं उससे भी आगे का जन्म प्रशस्त होता है (३१६)। जीव-सूत्र ३१७– तिविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा—इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। ३१८तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा सम्मट्ठिी, मिच्छाट्ठिी, सम्मामिच्छद्दिट्ठी। अहवा–तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा—पज्जत्तगा, अपजत्तगा, णोपज्जत्तगा-णोऽपज्जत्तगा एवं सम्मद्दिट्ठी-परित्तापजत्तग-सुहुम-सन्नि-भविया य [ परित्ता, अपरित्ता, णोपरित्ता-णोऽपरित्ता। सुहमा, बायरा, णोसुहुमाणोबायरा। सण्णी, असण्णी, णोसण्णी-णोअसण्णी। भवी, अभवी, णोभवी-णोऽभवी]। संसारी जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं—स्त्री, पुरुष और नपुंसक (३१७) । अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं—सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि। अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं—पर्याप्त, अपर्याप्त एवं न पर्याप्त और न अपर्याप्त (सिद्ध) (३१८)। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि, परीत, अपरीत, नोपरीत नोअपरीत, सूक्ष्म, बादर, नोसूक्ष्म नोबादर, संज्ञी, असंज्ञी, नो संज्ञी नो असंज्ञी, भव्य, अभव्य, नो भव्य नो अभव्य भी जानना चाहिए तथा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं —प्रत्येकशरीरी (एक शरीर का स्वामी एक जीव), साधारणशरीरी
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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