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________________ १२४ स्थानाङ्गसूत्रम् बकुश कहते हैं। २. प्रतिसेवनाकुशील— किसी मूल गुण की विराधना करने वाले साधु को प्रतिसेवनाकुशील कहते हैं। ३. कषायकुशील-क्रोधादि कषायों के आवेश में आकर अपने शील को कुत्सित करने वाले साधु को कषायकुशील कहते हैं। इन तीनों प्रकार के साधुओं को संज्ञोपयुक्त और नो-संज्ञोपयुक्त कहा गया है। साधारण रूप से तो ये आहारादि की अभिलाषा से रहित होते हैं, किन्तु किसी निमित्त विशेष के मिलने पर आहार, भय आदि संज्ञाओं से उपयुक्त भी हो जाते हैं। शैक्षभूमिसूत्र १८६- तओ सेहभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा—उक्कोसा, मज्झिमा, जहण्णा। उक्कोसा छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहण्णा सत्तराइंदिया। तीन शैक्षभूमियाँ कही गई हैं—उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। उत्कृष्ट छह मास की, मध्यम चार मास की और जघन्य सात दिन-रात की (१८६)। विवेचन– सामायिक चारित्र के ग्रहण करने वाले नवदीक्षित साधु को शैक्ष कहते हैं और उसके अभ्यासकाल को शैक्षभूमि कहते हैं। दीक्षा ग्रहण करने के समय सर्व सावध प्रवृत्ति का त्याग रूप सामायिक चारित्र अंगीकार किया जाता है। उसमें निपुणता प्राप्त कर लेने पर छेदोपस्थापनीय चारित्र को स्वीकार किया जाता है, उसमें पांच महाव्रतों और छठे रात्रि-भोजन विरमण व्रत को धारण किया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सामायिकचारित्र की तीन भूमियां बतलाई गई हैं। छह मास की उत्कृष्ट शैक्षभूमि के पश्चात् निश्चित रूप से छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकारे । करना आवश्यक होता है। यह मन्दबुद्धि शिष्य की भूमिका है। उसे दीक्षित होने के छह मास के भीतर सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यान का, इन्द्रियों के विषयों पर विजय पाने का एवं साधु-समाचारी का भली-भाँति से अभ्यास कर लेना चाहिए। जो इससे अधिक बुद्धिमान शिष्य होता है, वह उक्त कर्तव्यों का चार मास में अभ्यास कर लेता है और उसके पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र को अंगीकार करता है। यह शैक्ष की मध्यम भूमिका है। जो नवदीक्षित प्रबल बुद्धि एवं प्रतिभावान् होता है और जिसकी पूर्वभूमिका तैयार होती है वह उक्त कार्यों को सात दिन में ही सीखकर छेदोपस्थापनीय चारित्र को धारण कर लेता है, यह शैक्ष की जघन्य भूमिका है। ___व्यवहारभाष्य के अनुसार यदि कोई मुनि दीक्षा से भ्रष्ट होकर पुनः दीक्षा ले तो वह विस्मृत सामाचारी आदि को सात दिन में ही अभ्यास कर लेता है, अतः उसे सातवें दिन ही महाव्रतों में उपस्थापित कर दिया जाता है। इस अपेक्षा से भी शैक्षभूमि के जघन्यकाल का विधान संभव है। थेरभूमि-सूत्र १८७- तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा—जातिथेरे, सुयथेरे, परियायथेरे। सट्ठिवासजाए समणे णिग्गंथे जातिथेरे, ठाणसमवायधरे णं समणे णिग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए णं समणे १. व्यवहारभाष्य उ० २, गा० ५३-५४।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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