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________________ तृतीय स्थान द्वितीय उद्देश १२१ मझिमे जामे, पच्छिमे जामे। १६९- तिहिं जामेहिं आया केवलं सुयणाणं उप्पाडेजा, तं जहा—पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। १७०- तिहिं जामेहिं आया केवलं ओहिणाणं उप्पाडेजा, तं जहा—पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। १७१– तिहिं जामेहिं आया केवलं मणपजवणाणं उप्पाडेजा, तं जहा–पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। १७२- तिहिं जामेहिं आया] केवलणाणं उप्पाडेजा, तं जहा—पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। तीन याम (प्रहर) कहे गये हैं—प्रथम याम, मध्यम याम और पश्चिम याम (१६१)। तीनों ही यामों में आत्मा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म-श्रवण का लाभ पाता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१६२) । [तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध बोधि को प्राप्त करता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१६३)। तीनों ही यामों में आत्मा मुंडित होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पशिम याम में (१६४)।) तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध ब्रह्मचर्यवास में निवास करता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१६५)। तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध संयम से संयत होता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१६६)। तीनों ही यामों में, आत्मा विशुद्ध संवर से संवृत होता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१६७)। तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१६८)। तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध श्रुतज्ञान को प्राप्त करता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१६९)। तीनों ही यामों में विशुद्ध अवधिज्ञान को प्राप्त करता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१७०)। तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त करता है—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१७१)। तीनों ही यामों में आत्मा विशुद्ध केवलज्ञान को प्राप्त करता है]—प्रथम याम में, मध्यम याम में और पश्चिम याम में (१७२)। विवेचन– साधारणत: याम का प्रसिद्ध अर्थ प्रहर, दिन या रात का चौथा भाग है। किन्तु यहां त्रिस्थान का प्रकरण होने से रात्रि को तथा दिन को तीन यामों में विभक्त करके वर्णन किया गया है। अर्थात् दिन और रात्रि के तीसरे भाग को याम कहते हैं। इस सूत्र का आशय यह है कि दिन रात का ऐसा कोई समय नहीं है, जिसमें कि आत्मा धर्म-श्रवण और विशुद्ध बोधि आदि को न प्राप्त कर सके। अर्थात् सभी समयों में प्राप्त कर सकता है। वयः-सूत्र १७३– तओ वया पण्णत्ता, तं जहा—पढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए। १७४– तिहिं वएहिं आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तं जहा—पढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए। १७५ - [एसो चेव गमो णेयव्वो जाव केवलनाणं ति (तिहिं वएहिं आया) केवलं बोधि बुझेजा, (केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइज्जा,) केवलं बंभचेरवासमावसेजा, केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेजा, केवलं सुयणाणं उप्पाडेजा, केवलं ओहिणाणं उप्पाडेजा, केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेजा, केवलं केवलणाणं उप्पाडेजा (तं जहा—पढमे वए, मज्झिमे वए, पच्छिमे वए)। वय (काल-कृत अवस्था-भेद) तीन कहे गये हैं—प्रथमवय, मध्यमवय और पश्चिमवय (१७३)। तीनों ही
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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