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________________ १०९ तृतीय स्थान प्रथम उद्देश दुष्प्रतीकार-सूत्र ८७– तिण्डं दुष्पडियारं समणाउसो! तं जहा—अम्मापिउणो, भट्ठिस्स, धम्मायरियस्स। १. संपातोवि य णं केइ पुरिसे अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं अब्भंगेत्ता, सुरभिणा गंधट्टएणं उव्वट्टित्ता, तिहिं उदगेहिं मज्जावेत्ता, सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता, मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भोयावेत्ता जावजीवं पिट्ठिवडेंसियाए परिवहेज्जा, तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुष्पडियारं भवइ। __ अहे णं से तं अम्मापियरं केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सुप्पडियारं भवति समणाउसो! २. केइ महच्चे दरिदं समुक्कसेजा। तए णं से दरिद्दे समुक्किट्ठे समाणे पच्छा पुरं च णं विउलभोगसमितिसमण्णागते यावि विहरेजा। तए णं से महच्चे अण्णया कयाइ दरिदीहूए समाणे तस्स दरिहस्स अंतिए हव्वमागच्छेजा। तए णं से दरिद्दे तस्स भट्टिस्स सव्वस्समवि दलयमाणे तेणावि तस्स दुप्पडियारं भवति। अहे णं से तं भट्टि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पडियारं भवति [समणाउसो! ?] ३. केइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णे। तए णं से देवे तं धम्मायरियं दुब्भिक्खाओ वा देसाओ सुभिक्खं देसं साहरेज्जा, कंताराओ वा णिक्कंतारं करेजा, दीहकालिएणं वा रोगातंकेणं अभिभूतं समाणं विमोएज्जा, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवति। ___अहे णं से तं धम्मायरियं केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भटुं समाणं भुज्जोवि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियारं भवति [समणाउसो! ?] हे आयुष्मान् श्रमणो! ये तीन दुष्प्रतीकार हैं—इनसे उऋण होना दुःशक्य है—माता-पिता, भर्ता (पालनपोषण करने वाला स्वामी) और धर्माचार्य। १. कोई पुरुष (पुत्र) अपने माता-पिता का प्रातःकाल होते ही शतपाक और सहस्रपाक तेलों से मर्दन कर, सुगन्धित चूर्ण से उबटन कर, सुगन्धित जल, शीतल जल एवं उष्ण जल से स्नान कराकर, सर्व अलंकारों से उन्हें विभूषित कर, अठारह प्रकार के स्थाली-पाक शुद्ध व्यंजनों से युक्त भोजन कराकर, जीवन-पर्यन्त पृष्ठयवतंसिका से (पीठ पर बैठाकर, या कावड़ में बिठाकर कन्धे से) उनका परिवहन करे, तो भी वह उनके (माता-पिता के) उपकारों से उऋण नहीं हो सकता। हे आयुष्मान् श्रमणो! वह उनसे तभी उऋण हो सकता है जब कि उन मातापिता को सम्बोधित कर, धर्म का स्वरूप और उसके भेद-प्रभेद बताकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म में स्थापित करता है।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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