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________________ स्थानाङ्गसूत्रम् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों में तीन अशुभ लेश्याएं कही गई हैं—कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या (६३)। पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों में तीन शुभ लेश्याएं कही गई हैं—तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या (६४)। इसी प्रकार मनुष्यों में भी तीन अशुभ लेश्याएं कही गई हैं—कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या (६५)। मनुष्यों में तीन शुभ लेश्याएं भी कही गई हैं—तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या (६६) । वान-व्यन्तरों में असुरकुमारों के समान तीन अशुभ लेश्याएं कही गई हैं (६७)। वैमानिक देवों में तीन शुभ लेश्याएं कही गई हैं—तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या (६८)। विवेचन– यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र आदि में असुरकुमार आदि भवनवासी और व्यन्तरदेवों के तेजोलेश्या भी बतलाई गई हैं, परन्तु इस स्थान में तीन-तीन का संकलन विवक्षित है, अतः उनमें केवल तीन अशुभ लेश्याओं का ही कथन किया गया है। लेश्याओं के स्वरूप का विवेचन प्रथम स्थान के लेश्यापद में किया जा चुका है। तारारूप-चलन-सूत्र - ६९- तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेजा, तं जहा—विकुव्वमाणे वा, परियारेमाणे वा, ठाणाओ वा ठाणं संकममाणे तारारूवे चलेजा। तीन कारणों से तारा चलित होता है—विक्रिया करते हुए, परिचारणा करते हुए और एक स्थान से दूसरे स्थान में संक्रमण करते हुए (६९)। देवविक्रिया-सूत्र ७०– तिहिं ठाणेहिं देवे विजुयारं करेजा, तं जहा विकुव्वमाणे वा, परियारेमाणे वा, तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इ९ि जुतिं जसं बलं वीरियं पुरिसक्कार-परक्कम उवदंसेमाणे देवे विजुयारं करेजा। ७१– तिहिं ठाणेहिं देवे थणियसदं करेजा, तं जहा—विकुव्वमाणे वा, [ परियारेमाणे वा, तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्डिं जुतिं जसं बलं वीरियं पुरिसक्कारपरक्कम उवदंसेमाणे-देवे थणियसदं करेजा।] तीन कारणों से देव विद्युत्कार (विद्युत्प्रकाश) करते हैं—वैक्रियरूप करते हुए, परिचारणा करते हुए. और तथारूप श्रमण माहन के सामने अपनी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार तथा पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए (७०)। तीन कारणों से देव मेघ जैसी गर्जना करते हैं वैक्रिय रूप करते हुए, (परिचारणा करते हुए और तथारूप श्रमण माहन के सामने अपनी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार तथा पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए।) (७१)। विवेचनदेवों के विद्युत जैसा प्रकाश करने और मेघ जैसी गर्जना करने के तीसरे कारण में उल्लिखित ऋद्धि आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है—विमान एवं परिवार आदि के वैभव को ऋद्धि कहते हैं। शरीर और आभूषण आदि की कान्ति को द्युति कहते हैं। प्रख्याति या प्रसिद्धि को यश कहते हैं। शारीरिक शक्ति को बल और आत्मिक शक्ति को वीर्य कहते हैं। पुरुषार्थ करने के अभिमान को पुरुषकार कहते हैं तथा पुरुषार्थजनित अहंकार को पराक्रम कहते हैं। किसी संयमी साधु के समक्ष अपना वैभव आदि दिखलाने के लिए भी बिजली जैसा प्रकाश : और मेघ जैसी गर्जना करते हैं।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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