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________________ १०४ पुरुष और नपुंसक वेदवाले (४७)।] विवेचन — उदर, वक्ष:स्थल अथवा भुजाओं आदि के बल पर सरकने या चलने वाले जीवों को परिसर्प कहा जाता है। इन की जातियां मुख्य रूप से दो प्रकार की होती हैं— उरः परिसर्प और भुजपरिसर्प । पेट और छाती के बल पर रेंगने या सरकने वाले सांप आदि को उरः परिसर्प कहते हैं और भुजाओं के बल पर चलने वाले नेउले, गोह आदि को भुजपरिसर्प कहते हैं। इन दोनों जातियों के अण्डज और पोतज जीव तो तीनों ही वेदवाले होते हैं। किन्तु सम्मूर्च्छिम जाति वाले केवल नपुंसक वेदी ही होते हैं । स्त्री-सूत्र स्थानाङ्गसूत्रम् ४८ - तिविहाओ इत्थीओ पण्णत्ताओ, तं जहा—तिरिक्खजोणित्थीओ, मणुस्सित्थीओ देवित्थीओ। ४९ - तिरिक्खजोणीओ इत्थीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा जलचरीओ थलचरीओ, खहचरीओ। ५० - मणुस्सित्थीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा— कम्मभूमियाओ, अकम्मभूमियाओ अंतरदीविगाओ। स्त्रियां तीन प्रकार की कही गई हैं – तिर्यग्योनिकस्त्री, मनुष्यस्त्री और देवस्त्री (४८) । तिर्यग्योनिक स्त्रियां तीन प्रकार की कही गई हैं— जलचरी, स्थलचरी और खेचरी (नभश्चरी) (४९) । मनुष्य स्त्रियां तीन प्रकार की कही गई हैं— कर्मभूमिजा, अकर्मभूमिजा और अन्तद्वपजा (५०) । विवेचन— नरकगति में नारक केवल एक नपुंसक वेद वाले होते हैं अतः शेष तीन गतिवाले जीवों में स्त्रियों का होना कहा गया है। तिर्यग्योनि के जीव तीन प्रकार के होते हैं, जलचर — मत्स्य, मेंढक आदि । स्थलचर — बैल, भैंसा आदि । खेचर या नभश्चर — कबूतर, बगुला आदि। इन तीनों जातियों की अपेक्षा उनकी स्त्रियां भी तीन प्रकार की कही गई हैं। मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं— कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तद्वपज। जहां पर मषि, असि, कृषि आदि कर्मों के द्वारा जीवननिर्वाह किया जाता है, उसे कर्मभूमि कहते हैं। भरत, ऐरवत क्षेत्र में अवसर्पिणी आरे के अन्तिम तीन कालों में तथा उत्सर्पिणी के प्रारम्भिक तीन कालों में कृषि आदि से जीविका चलाई जाती है, अत: उस समय वहां उत्पन्न होने वाले मनुष्य-तिर्यचों को कर्मभूमिज कहा जाता है। विदेह क्षेत्र के देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर पूर्व और अपर विदेह में उत्पन्न होने वाले मनुष्य-तिर्यंच कर्मभूमिज़ ही कहलाते हैं। शेष हैमवत आदि क्षेत्रों में तथा सुषमासुषमा आदि तीन कालों में उत्पन्न हुए मनुष्य तिर्यंचों को अकर्मभूमिज या भूमि कहा जाता है, क्योंकि वहां के मनुष्य और तिर्यंच प्रकृति- -जन्य कल्पवृक्षों द्वारा प्रदत्त भोगों को भोगते हैं। उक्त दो जाति के अतिरिक्त लवण आदि समुद्रों के भीतर स्थिर द्वीपों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को अन्तद्वपज कहते हैं । इस प्रकार मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं, अतः उनकी स्त्रियां भी तीन प्रकार की कही गई हैं। पुरुष - सूत्र ५१ - तिविहा पुरिसा पण्णत्ता, तं जहा—तिरिक्खजोणियपुरिसा, मणुस्सपुरिसा, देवपुरिसा । ५२ — तिरिक्खजोणियपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा— जलचरा, थलचरा, खहचरा । ५३ – मसपुरिसातिविहा पण्णत्ता, तं जहा— कम्मभूमिया, अकम्मभूमिया, अंतरदीवगा ।
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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