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द्वितीय स्थान–चतुर्थ उद्देश
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क्रोध दो प्रकार का कहा गया है—आत्म-प्रतिष्ठित और पर-प्रतिष्ठित (४०६)। इसी प्रकार मान दो प्रकार का, माया दो प्रकार की, लोभ दो प्रकार का, प्रेयस् (राग) दो प्रकार का, द्वेष दो प्रकार का, कलह दो प्रकार का, अभ्याख्यान दो प्रकार का, पैशुन्य दो प्रकार का, परपरिवाद दो प्रकार का, अरति-रति दो प्रकार की, माया-मृषा दो प्रकार की और मिथ्यादर्शनशल्य दो प्रकार का कहा गया है—आत्म-प्रतिष्ठित और पर-प्रतिष्ठित । इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में जीवों के क्रोध आदि दो-दो प्रकार के होते हैं (४०७)।
विवेचन— बिना किसी दूसरे के निमित्त से स्वयं ही अपने भीतर प्रकट होने वाले क्रोध आदि को आत्मप्रतिष्ठित कहते हैं तथा जो क्रोधादि पर के निमित्त से उत्पन्न होता है उसे पर-प्रतिष्ठित कहते हैं । संस्कृत टीकाकार ने अथवा कह कर यह भी अर्थ किया है कि जो अपने द्वारा आक्रोश आदि करके दूसरे में क्रोधादि उत्पन्न किया जाता है, वह आत्म-प्रतिष्ठित है तथा दूसरे व्यक्ति के द्वारा आक्रोशादि से जो क्रोधादि उत्पन्न किया जाता है वह परप्रतिष्ठित है। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि पृथ्वीकायिकादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के दण्डकों में आत्म-प्रतिष्ठित क्रोधादि पूर्वभव के संस्कार द्वारा जनित होते हैं। जीव-पद
४०८- दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा तसा चेव, थावरा चेव। ४०९दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धा चेव, असिद्धा चेव। ४१०- दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा सइंदिया चेव, अणिंदिया चेव, सकायच्चेव अकायच्चेव, सजोगी चेव, अजोगी चेव, सवेया चेव, अवेया चेव, सकसाया चेव, अकसाया चेव, सलेसा चेव, अलेसा चेव, णाणी चेव, अणाणी चेव, सागारोवउत्ता चेव, अणागारोवउत्ता चेव, आहारगा चेव, अणाहारगा चेव, भासगा चेव, अभासगा चेव, चरिमा चेव, अचरिमा चेव, ससरीरी चेव, असरीरी चेव।
संसार-समापन्नक (संसारी) जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—त्रस और स्थावर (४०८) । सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—सिद्ध और असिद्ध (४०९) । पुनः सर्व जीव दो प्रकार के कहे गये हैं सेन्द्रिय (इन्द्रिय-सहित) और अनिन्द्रिय (इन्द्रिय-रहित)। सकाय और अकाय, सयोगी और अयोगी, सवेद और अवेद, सकषाय और अकषाय, सलेश्य और अलेश्य, ज्ञानी और अज्ञानी, साकारोपयोग-युक्त और अनाकारोपयोग-युक्त, आहारक और अनाहरक, भाषक और अभाषक, सशरीरी और अशरीरी (४१०)। मरण-पद
४११– दो मरणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णो णिच्चं वण्णियाइं णो णिच्चं कित्तियाई णो णिच्चं बुड्याई णो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्चं अब्भणुण्णायाइं भवंति, तं जहा—वलयमरणे चेव, वसट्टमरणे चेव। ४१२— एवं णियाणमरणे चेव तब्भवमरणे चेव, गिरिपडणे चेव, तरुपडणे चेव, जलपवेसे चेव, जलणपवेसे चेव, विसभक्खणे चेव, सत्थोवाडणे चेव। ४१३दो मरणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णो णिच्चं वणियाइं णो णिच्चं कित्तियाई णो णिच्चं बुड्याइं णो णिच्चं पसत्थाई णो णिच्चं अब्भणुण्णायाइं भवंति। कारणे पुण अप्पडिकुट्ठाई,