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द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश
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आगे निवेदित करता है, इसमें उत्तीर्ण हो जाने पर गुरु उसे भलीभांति से स्मरण रखने और दूसरों को पढाने का निर्देश देते हैं, इसे अनुज्ञा कहा जाता है। सूत्र १६९ में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को जो मारणान्तिकी संल्लेखना का विधान किया गया है, उसका अभिप्राय यह है कषायों के कृश करने के साथ काय के कृश करने को संल्लेखना कहते हैं। मानसिक निर्मलता के लिए कषायों का कृश करना और शारीरिक वात-पित्तादि-जनित विकारों की शुद्धि के लिए भक्त-पान का त्याग किया जाता है, उसे भक्त-पान-प्रत्याख्यान समाधिमरण कहते हैं। सामर्थ्यवान् साधु उठना-बैठना और करवट बदलना आदि समस्त शारीरिक क्रियाओं को छोड़कर, संस्तर पर कटे हुए वृक्ष के समान निश्चेष्ट पड़ा रहा है, उसे पादपोपगमन संथारा कहते हैं। इसका दूसरा नाम प्रायोपगमन भी है। इस अवस्था में खानपान का त्याग तो होता ही है, साथ ही वह मुख से भी किसी से कुछ नहीं बोलता है और न शरीर के किसी अंग से किसी को कुछ संकेत ही करता है। समाधिमरण के समय भी पूर्व या उत्तर की ओर मुख रहना आवश्यक है।
॥ द्वितीय स्थान का प्रथम उद्देश समाप्त ॥