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________________ ४६ स्थानाङ्गसूत्रम् चेव, उदीणं चेव । ) १६८ - दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा—मुंडावित्तए, सिक्खावित्तए, उवट्ठावित्तए, संभुंजित्तए, संवासित्तए, सज्झायमुद्दिसित्तए, सज्झायं समुद्दिसित्तए, सज्झायमणुजाणित्तए, आलोइत्तए, पडिक्कमित्तए, णिंदित्तए, गरहित्तए, विउट्टित्तए, विसोहित्तए, अकरणयाए अब्भुट्ठित्तए अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिव्वज्जित्तए — पाईणं चेव, उदीणं चेव । १६९ – दो दिसाओ अभिगिज्झ कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अपच्छिममारणंतियसंलेहणा-जूसणा-जूसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खित्ताणं पाओवगत्ताणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, तं जहा पाईणं चेव, उदीणं चेव । (निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को पूर्व और उत्तर इन दो दिशाओं में मुख करके दीक्षित करना कल्पता है (१६७)।) इसी प्रकार निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को पूर्व और उत्तर दिशा में मुख करके मुण्डित करना, शिक्षा देना, महाव्रतों में आरोपित करना, भोजनमण्डली में सम्मिलित करना, संस्तारक मण्डली में संवास करना, स्वाध्याय का उद्देश करना, स्वाध्याय का समुद्देश करना, स्वाध्याय की अनुज्ञा देना, आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना, अतिचारों की निन्दा करना, गुरु के सम्मुख अतिचारों की गर्हा करना, लगे हुए दोषों का छेदन (प्रायश्चित्त) करना, दोषों की शुद्धि करना, पुनः दोष न करने के लिए अभ्युद्यत होना, यथादोष यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करना कल्पता है (१६८) । पूर्व और उत्तर इन दो दिशाओं के अभिमुख होकर निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को मारणान्तिकी संल्लेखना की प्रीतिपूर्वक आराधना करते हुए, भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर पादपोपगमन संथारा स्वीकार कर मरण की आकांक्षा नहीं करते हुए रहना कल्पता है । अर्थात् संल्लेखना स्वीकार करके पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुख करके रहना चाहिए (१६९) । विवेचन- किसी भी शुभ कार्य को करते समय पूर्व दिशा और उत्तर दिशा में मुख करने का विधान प्राचीनकाल से चला आ रहा है। इसका आध्यात्मिक उद्देश्य तो यह है कि पूर्व दिशा से उदित होने वाला सूर्य जिस प्रकार संसार को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार से दीक्षा लेना आदि कार्य भी मेरे लिए उत्तरोत्तर प्रकाश देते रहें तथा उत्तर दिशा में मुख करने का उद्देश्य यह है कि भरतक्षेत्र की उत्तर दिशा में विदेह क्षेत्र के भीतर सीमन्धर आदि तीर्थंकर विहरमान हैं, उनका स्मरण मेरा पथ-प्रदर्शक रहे। ज्योतिर्विद् लोगों का कहना है कि पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुख करके शुभ कार्य करने पर ग्रह-नक्षत्र आदि का शरीर और मन पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और दक्षिण या पश्चिम दिशा में मुख करके कार्य करने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दीक्षा के पूर्व व्यक्ति का शिरोमुण्डन किया जाता है। दीक्षा के समय उसे दो प्रकार की शिक्षा दी जाती है— ग्रहणशिक्षा — सूत्र और अर्थ को ग्रहण करने की शिक्षा और आसेवन - शिक्षा — पात्रादि के प्रतिलेखानादि की शिक्षा । शास्त्रों में साधुओं की सात मंडलियों का उल्लेख मिलता है—१. सूत्र - मंडली — सूत्र पाठ के समय एक साथ बैठना। २. अर्थ - मंडली —— सूत्र के अर्थ - पाठ के समय एक साथ बैठना। इसी प्रकार ३. भोजन-मंडली, ४. कालप्रतिलेखन - मंडली, ५. प्रतिक्रमण - मंडली, ६ . स्वाध्याय मंडल और ७. संस्तारक - मंडली । इन सभी का निर्देश सूत्र १६८ में किया गया है। स्वाध्याय के उद्देश, समुद्देश आदि का भाव इस प्रकार है—' यह अध्ययन तुम्हें पढ़ना चाहिए' गुरु के इस प्रकार के निर्देश को उद्देश कहते हैं। शिष्य भलीभाँति से पाठ पढ़ कर गुरु के आगे निवेदित करता है, तब गुरु उसे स्थिर और परिचित करने के लिए जो निर्देश देते हैं, उसे समुद्देश कहते हैं। पढ़े हुए पाठ के स्थिर और परिचित हो जाने पर शिष्य पुनः गुरु के
SR No.003440
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size16 MB
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