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द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश
उन्माद-पद
७५- दुविहे उम्माए पण्णत्ते, तं जहा—जक्खाएसे चेव, मोहणिजस्स चेव कम्मस्स उदएणं।
तत्थ णं जे से जक्खाएसे, से णं सुहवेयतराए चेव, सुहविमोयतराए चेव। तत्थ णं जे से मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं, से णं दुहवेयतराए चेव, दुहविमोयतराए चेव।
__उन्माद अर्थात् बुद्धिभ्रम या बुद्धि की विपरीतता दो प्रकार की कही है—यक्षावेश से (यक्ष के शरीर में प्रविष्ट होने से) और मोहनीयकर्म के उदय से। इनमें जो यक्षावेश-जनित उन्माद है, वह मोहनीयकर्म-जनित उन्माद की अपेक्षा सुख से भोगा जाने वाला और सुख से छूट सकने वाला होता है। किन्तु जो मोहनीयकर्म-जनित उन्माद है, वह यक्षावेश-जनित उन्माद की अपेक्षा दुःख से भोगा जाने वाला और दुःख से छूटने वाला होता है (७५)। दण्ड-पद
७६-दो दंडा पण्णत्ता, तं जहा अट्ठादंडे चेव, अणट्ठादंडे चेव। ७७–णेरइयाणं दो दंडा पण्णत्ता, तं जहा—अट्ठादंडे य, अणट्ठादंडे य। ७८— एवं चउवीसादंडओ जाव वेमाणियाणं।
दण्ड दो प्रकार का कहा गया है—अर्थदण्ड (सप्रयोजन प्राणातिपातादि) और अनर्थदण्ड (निष्प्रयोजन प्राणातिपातादि) (७६) । नारकियों में दोनों प्रकार के दण्ड कहे गये हैं—अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड (७७)। इसी प्रकार वैमानिक तक के सभी दण्डकों में दो-दो दण्ड जानना चाहिए (७८)। दर्शन-पद
७९-दुविहे दंसणे पण्णत्ते, तं जहा सम्मइंसणे चेव, मिच्छादसणे चेव। ८०-सम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–णिसग्गसम्मइंसणे चेव, अभिगमसम्मइंसणे चेव। ८१-णिसग्गसम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—पडिवाइ चेव, अपडिवाइ चेव। ८२- अभिगमसम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–पडिवाइ चेव, अपडिवाइ चेव। ८३–मिच्छाइंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा अभिग्गहियमिच्छादंसणे चेव, अणभिग्गहिय-मिच्छादंसणे चेव। ८४– अभिग्गहिय-मिच्छादंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—सपजवसिते चेव, अपज्जवसिते चेव। ८५-[अणभिग्गहिय-मिच्छादंसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—सपजवसिते चेव, अपज्जवसिते चेव]।
दर्शन (श्रद्धा या रुचि) दो प्रकार का कहा गया है—सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन (७९) । सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है—निसर्गसम्यग्दर्शन (अन्तरंग में दर्शनमोह का उपशमादि होने पर किसी बाह्य निमित्त के बिना स्वतः स्वभाव से उत्पन्न होने वाला) और अधिगमसम्यग्दर्शन (अन्तरंग में दर्शनमोह का उपशमादि होने और बाह्य में गुरु-उपदेश आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाला) (८०)। निसर्गसम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है-प्रतिपाती (नष्ट हो जाने वाला औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन) और अप्रतिपाति (नहीं नष्ट होने वाला क्षायिकसम्यक्त्व) (८१)। अधिगमसम्यग्दर्शन भी दो प्रकार का कहा गया है—प्रतिपाती और अप्रतिपाती (८२)। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है—आभिग्रहिक (इस भव में ग्रहण किया गया मिथ्यात्व) और अनाभिग्रहिक (पूर्व भवों से आने वाला मिथ्यात्व) (८३)। आभिग्रहिक मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है