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स्थानाङ्गसूत्रम्
और परिग्रह—इन दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा विशुद्ध केवलज्ञान को उत्पन्न करता है (६२)। श्रवण समधिगमपद
६३- दोहिं ठाणेहिं आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ६४- दोहिं ठाणेहिं आया केवलं बोधिं बुझेजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव।६५- दोहिं ठाणेहिं आया केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ६६- दोहिं ठाणेहिं आया केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ६७- दोहिं ठाणेहिं आया केवलं संजमेणं संजमेजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेंव। ६८- दोहिं ठाणेहिं आया केवलं संवरेणं संवरेजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ६९- दोहिं ठाणेहिं आया केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ७०-दोहिं ठाणेहिं आया केवलं सुयणाणं उप्पाडेजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ७१– दोहिं ठाणेहिं आया केवलं ओहिणाणं उप्पाडेजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ७२– दोहिं ठाणेहिं आया केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव। ७३– दोहिं ठाणेहिं आया केवलं केवलणाणं उप्पाडेजा, तं जहा सोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चेव।
धर्म की उपादेयता सुनने और उसे जानने, इन दो स्थानों (कारणों) से आत्मा केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है (६३) । सुनने और जानने—इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध बोधि का अनुभव करता है (६४) । सुनने और जानने—इन दो स्थानों से आत्मा मुण्डित होकर और घर का त्याग कर सम्पूर्ण अनगारिता को पाता है (६५) । सुनने
और जानने—इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करता है (६६)। सुनने और जानने—इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण संयम से संयुक्त होता है (६७) । सुनने और जानने—इन दो स्थानों से आत्मा सम्पूर्ण संवर से संवृत्त होता है (६८)। सुनने और जानने इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को उत्पन्न करता है (६९) । सुनने और जानने इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध श्रुतज्ञान को उत्पन्न करता है (७०)। सुनने और जानने—इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध अवधिज्ञान को उत्पन्न करता है (७१) । सुनने और जानने—इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध मनःपर्यवज्ञान को उत्पन्न करता है (७२)। सुनने और जानने—इन दो स्थानों से आत्मा विशुद्ध केवलज्ञान को उत्पन्न करता है (७३)। समा (कालचक्र)-पद
७४- दो समाओ पण्णत्ताओ, तं जहा–ओसप्पिणी समा चेव, उस्सप्पिणी समा चेव।
दो समा कही गई हैं—अवसर्पिणी समा—इसमें वस्तुओं के रूप, रस, गन्ध आदि का एवं जीवों की आयु, बल, बुद्धि आदि का क्रम से ह्रास होता है। उत्सर्पिणी समा—इसमें वस्तुओं के रूप, रस, गन्ध आदि का एवं जीवों की आयु, बल, बुद्धि, सुख आदि का क्रम से विकास होता है (७४)।