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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७०८ 1
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( ४ ) प्रत्येक प्रवृत्ति में समिति से युक्त, तथा यतनाशील ।
(५) मन, वचन, काया और इन्द्रियों की गुप्ति से युक्त, नवगुप्ति सहित ब्रह्मचर्यनिष्ठ ।
इस दृष्टि से प्रस्तुत मूलपाठ में वर्णित सुविहित साधु में मिथ्यात्त्व, अविरति न होने पर भी कदाचित् प्रमाद एवं कषाय की सूक्ष्ममात्रा रहती है, इसलिए सिद्धान्ततः ऐर्यापथिक क्रिया न लग कर साम्प्रदायिक क्रिया लगती है ।
जिस साधु में प्रस्तुत सूत्रोक्त अर्हताएँ नहीं हैं, वह वीतराग अवस्था को निकट भविष्य में प्राप्त नहीं कर सकता और वीतराग अवस्था प्राप्त किये बिना कोई भी आत्मा ऐर्यापथिक क्रिया को प्राप्त नहीं कर सकता । '
श्रधर्मपक्ष नामक प्रथम स्थान के विकल्प
७०८ - प्रदुत्तरं च णं पुरिसविजयविभंगमाइक्लिस्सामि ।
इह खलु नाणापण्णाणं नाणाछंदाणं नाणासीलाणं नाणादिट्ठीणं नाणारुईणं नाणारंभाणं नाणाज्भवसाणसंजुत्ताणं नाणाविहं पावसुयज्भयणं एवं भवति, तंजहा भोम्मं उप्पायं सुविणं अंतलिक्खं अंगं सरलक्खणं वंजणं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं मिढलक्खणं कुक्कड लक्खणं तित्तिरलक्खणं वट्टगलक्खणं लावगलक्खणं चक्कलक्खणं छत्तलक्खणं चम्मलक्खणं दंडलक्खणं श्रलिक्खणं मणिलक्खणं कागिणिलक्खणं सुभगाकरं दुम्भगाकरं गम्भकरं मोहणकरं श्रावण पागसासण दव्वहोमं खत्तियविज्जं चंदचरियं सूरचरियं सुक्कचरियं बहस्सइचरियं उasturi दिसीदाहं मियचक्कं वायसपरिमंडलं पंसुवुट्ठि केसवुट्ठ मंसवुट्ठि रुहिरवुट्ठि वेताल श्रद्धवेताल श्रोसोर्वाण तालुग्धार्डाण सोवागि सावर दामिलि कार्लिंग गोरि गंधारि श्रोवतण उप्पतण जंर्भाण थंभण लेसण श्रामयकरण विसल्लकणि पक्कर्माणि अंतद्वाणि श्रायमणि एवमादिश्राश्रो बिज्जाश्रो अन्नस्स हेउं पउंजंति, पाणस्स हेउं पउंजंति वत्थस्स हेउं पउंजंति, लेणस्स हेउं परंजंति, सयणस्स हेडं पउंजंति, प्रन्नसि वा विरूव-रूवाणं कामभोगाण हेउं पउंजंति, तेरिच्छं ते विज्जं सेवंति, श्रणारिया विष्पडिवना ते कालमासे कालं किच्चा अण्णतराई श्रासुरियाई कि ब्बिसियाई
उववत्ता भवति, ततो वि विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयताए तमअंधयाए पच्चायंति ।
७०८—इसके पश्चात् पुरुषविजय ( जिस-जिस विद्या से कतिपय अल्पसत्त्व पुरुषगण अनर्थानु
१. ( क ) ईरणमीर्या तस्यास्तया वा पन्था ईर्यापथस्तत्र भवमर्यापथिकम् । श्रर्थात् — गमनागमनादि करना ईर्ष्या है, उसका या उसके सहारे से पथ का उपयोग करना ईर्यापथ है । ईर्यापथ से होने वाली क्रिया ईर्यापथिक है । यह इसका शब्दव्युत्पत्तिनिमित्त है । प्रवृत्तिनिमित्त इस प्रकार है— सर्वत्रोपयुक्तस्याकषायस्य समीक्षित मनोवाक्कायत्रियस्य या क्रिया, तया यत्कर्म तदीर्यापथिकेत्युच्यते ।' अर्थात् — जो साधक सर्वत्रोपयोगयुक्त हो, अकषाय हो, मन-वचन काया की क्रिया भी देखभालकर करता हो, उसकी ( कायिक) क्रिया ईर्यापथक्रिया है, उससे जो कर्म बंधता है, उसे ईर्यापथिका कहते हैं । - सूत्रकृतांग शी० वृत्ति, पत्रांक ३१६ (ख) देखिये 'केवली णं भंते ! अस्सिं समयंसि जेसु आगासपएसेसु' इत्यादि वर्णन
- सूत्रकृ. शी. वृत्ति, पत्रांक ३१६