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________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन - तेरहवाँ क्रियास्थान : ऐर्यापथिक – अधिकारी, स्वरूप, प्रक्रियाप्ररूपण एवं सेवन - प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने ऐर्यापथिक क्रियास्थान के सन्दर्भ में छह तथ्यों का निरूपण किया है(१) ऐर्यापथिक क्रियावान् की अर्हताएँ - समिति, गुप्ति, इन्द्रियगुप्ति तथा ब्रह्मचर्यगुप्ति वस्त्रादि से सम्पन्न । ( २ ) ऐर्यापथिक क्रिया का स्वरूप- गति, स्थिति, पार्श्वपरिवर्तन, भोजन, भाषण और आदाननिक्षेप यहाँ तक कि पक्ष्मनिपात ( पलक झपकना) आदि समस्त सूक्ष्म क्रियाएं उपयोगपूर्वक करना । ( ३ ) ऐर्यापथिक क्रिया की क्रमश: प्रक्रिया – त्रिसमयिक, बद्ध - स्पृष्ट, वेदित, निर्जीर्ण, तत्पश्चात् अक्रिय (कर्मरहित) | ७० 1 ( ४ ) ऐर्यापथिक सावद्य क्रिया के निमित्त से होने वाला त्रिसमयवर्ती शुभकर्मबन्धन, ऐर्याथिक क्रियास्थान नाम की सार्थकता । (५) त्रैकालिक तीर्थंकरों द्वारा इन्हीं तेरह क्रियास्थानों का कथन और प्ररूपण । (६) त्रैकालिक तीर्थंकरों द्वारा मात्र तेरहवें क्रियास्थान का ही सेवन । ' afrat क्रिया और और उसका अधिकारी - क्रियाएँ गुणस्थान की दृष्टि से मुख्यतया दो कोटि की हैं - साम्परायिक क्रिया और ऐर्यापथिकी क्रिया । पहले गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक के जीवों में साम्परायिक क्रिया का बन्ध होता है, ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के ऐर्यापथिक क्रिया का बन्ध होता है । पहले गुणस्थान से दसवें गुण स्थान तक मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पाँचों में कोई न कोई अवश्य विद्यमान रहता है, और कषाय जहाँ तक है, वहाँ तक साम्परायिक क्रिया का बन्ध होता है । दसवें गुणस्थान से आगे तेरहवें गुणस्थान तक कषाय का उदय नहीं रहता सिर्फ योग विद्यमान रहता है। इसलिए योगों के कारण वहाँ केवल सातावेदनीय कर्म का प्रदेशबन्ध होता है, स्थितिबन्ध नहीं, क्योंकि स्थितिबन्ध वहीं होता है जहाँ कषाय है । ऐर्याथिक क्रिया इतनी सूक्ष्म है कि प्रथम समय में इसका बन्ध और स्पर्श होता है, दूसरे समय में वेदन और तीसरे समय में निर्जरा हो जाती है, इस दृष्टि से निष्कषाय वीतराग पुरुष को भी सयोगावस्था तक इस क्रिया का बन्ध होता है । केवलज्ञानी सयोगावस्था में सर्वथा निश्चल frosम्प नहीं रह सकते, क्योंकि मन, वचन, काया के योग उनमें विद्यमान हैं । और ऐर्यापथिक क्रिया इतनी सूक्ष्म है कि धीरे से पलक गिराने पर यह क्रिया लग जाती है । ऐर्यापथिक क्रिया प्राप्त करने की अर्हताएँ - शास्त्रकार ने यहाँ ऐर्यापथिक क्रिया के अधिकारी साधक की मुख्य पाँच अर्हताएँ प्रस्तुत की हैं - (१) आत्मत्व - आत्मभाव में स्थित एवं विषय कषायों आदि परभावों से विरत । (२) सांसारिक शब्दादि वैषयिक सुखों से विरक्त, एकमात्र प्रात्मिक सुख के लिए प्रयत्नशील । (३) गृहवास तथा माता-पिता आदि का एवं धन-सम्पत्ति आदि संयोगों का ममत्व त्याग कर अनगारधर्म में प्रव्रजित, अप्रमत्त भाव से अनगार - धर्मपालन में तत्पर । १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३१६-३१७ का सारांश
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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