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क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७०७ ]
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बितीयसमए वेदिता, ततियसमए णिज्जिण्णा, सा बद्धा पुट्ठा उदोरिया वेदिया णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्मं चावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं असावज्जे ति पाहिज्जति, तेरसमे किरियाठाणे इरियावहिए ति माहिते।
से बेमि-जे य प्रतीता जे य पडुप्पन्ना जे य प्रागमिस्सा अरहंता भगवंता सव्वे ते एताई चेव तेरस किरियाठाणाई भासिसु वा भासंति वा भासिस्संति वा पण्णविसु वा पण्णवेति वा पण्णविस्संति वा, एवं चेव तेरसमं किरियाठाणं सेविसु वा सेवंति वा सेविस्संति वा ।
७०७-इसके पश्चात् तेरहवां क्रियास्थान है, जिसे ऐर्यापथिक कहते हैं। इस जगत् में या आर्हतप्रवचन में जो व्यक्ति अपने आत्मार्थ (आत्मभाव) के लिए उपस्थित एवं समस्त परभावों या पापों से (मन-वचन-काया से) संवत (निवत्त) है तथा घरबार आदि छोड़ कर अनगार (मूनिधर्म में प्रवजित) हो गया है, जो ईर्यासमिति से युक्त है, सावध भाषा नहीं बोलता, इसलिए जो भाषासमिति से युक्त है, जो एषणासमिति का पालन करता है, जो पात्र, उपकरण आदि के ग्रहण करने और रखने की (आदान-निक्षेप)समिति से युक्त है, जो लघु नीति, बड़ी नीति, थूक, कफ, नाक के मैल आदि के परिष्ठापन की (उच्चारादि परिष्ठापन) समिति से युक्त है, जो मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से युक्त है, जो मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से गुप्त है, जिसकी इन्द्रियाँ गुप्त (विषयों से सुरक्षित या वश में) हैं, जिसका ब्रह्मचर्य नौ गुप्तियों से गुप्त (सुरक्षित) है, जो साधक उपयोग (यतना) सहित गमन करता है, उपयोगपूर्वक खड़ा होता है, उपयोगपूर्वक बैठता है, उपयोगसहित करवट बदलता है, यतनापूर्वक भोजन करता है, यतना के साथ बोलता है, उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि को ग्रहण करता है और उपयोगपूर्वक ही इन्हें रखता-उठाता है, यहाँ तक कि आँखों की पलकें भी उपयोगसहित झपकाता है ।
ऐसे (पूर्वोक्त अर्हताओं से युक्त) साधु में विविध मात्रा (प्रकार) वाली सूक्ष्म ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, जिसे वह करता है । उस ऐपिथिकी क्रिया का प्रथम समय में बन्ध और स्पर्श होता है, द्वितीय समय में उसका वेदन (अनुभव, फलभोग) होता है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा होती है। इस प्रकार वह ईर्यापथिकी क्रिया क्रमशः बद्ध, स्पृष्ट, उदीरित (उदीरणा की जाती है), वेदित (वेदन का विषय) और निर्जीण होती (निर्जरा की जाती) है। फिर आगामी (चतुर्थ) समय में वह अकर्मता को प्राप्त (कर्मरहित) होती है ।
इस प्रकार वीतराग पुरुष के पूर्वोक्त ईर्यापथिक क्रिया के कारण असावद्य (निरवद्य) कर्म का (त्रिसमयात्मक) बन्ध होता है। इसीलिए इस तेरहवें क्रियास्थान को ऐर्यापथिक कहा गया है । (श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-) मैं कहता हूं कि भूतकाल में जितने तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान काल में जितने तीर्थंकर हैं, और भविष्य में जितने भी तीर्थंकर होंगे, उन सभी ने इन तेरह क्रियास्थानों का कथन किया है, करते हैं तथा करेंगे, इसी प्रकार भूतकालीन तीर्थकरों ने इन्हीं १३ क्रियास्थानों की प्ररूपणा की है, वर्तमान तीर्थंकर करते हैं तथा भविष्यकालिक तीर्थंकर इन्हीं की प्ररूपणा करेंगे । इसी प्रकार प्राचीन तीर्थंकरों ने इसी तेरहवें क्रियास्थान का सेवन किया है, वर्तमान तीर्थकर इसी का सेवन करते हैं और भविष्य में होने वाले तीर्थंकर भी इसी का सेवन करेंगे।