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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६८३, ६८४, ६८५ ] [ ४५ ६८२–वह भिक्षु सावधक्रियाओं से रहित, जीवों का अहिंसक, क्रोधरहित, निर्मानी (अभिमानरहित) अमायी, निर्लोभी, उपशान्त एवं परिनिर्वृत-समाधियुक्त होकर रहे। वह अपनी क्रिया से इहलोक-परलोक में काम-भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा न करे, (जैसे कि)-यह (इतना) जो ज्ञान मैंने जाना-देखा है, सुना है अथवा मनन किया है, एवं विशिष्ट रूप से अभ्यस्त-अजित किया है, तथा यह जो मैने तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि चारित्र का सम्यक् आचरण किया है, एवं मोक्षयात्रा का तथा (धर्मपालन के कारणभूत) शरीर-निर्वाह के लिए अल्पमात्रा में शुद्ध आहार ग्रहणरूप धर्म का पालन किया है। इन सब सुकार्यों के फलस्वरूप यहाँ से शरीर छोड़ने के पश्चात् परलोक में मैं देव हो जाऊँ, समस्त काम-भोग मेरे अधीन (वशवर्ती) हो जाएँ, मैं अणिमा आदि सिद्धियों से युक्त हो जाऊँ, अथवा मैं विद्यासिद्ध बन जाऊं, एवं सब दुःखों तथा अशुभकर्मों से रहित हो जाऊं (अथवा दुःखरूप अशुभकर्मों और सुख रूप शुभकर्मों से रहित हो जाऊँ); क्योंकि विशिष्टतपश्चर्या आदि के होते हुए भी कभी अणिमादि सिद्धि प्राप्त हो जाती है, कभी नहीं भी होती (किन्तु ऐसी फलाकांक्षा नहीं करनी चाहिए)। ६८३-से भिक्खू सद्देहि, अमुच्छिए, रूवेहि, अमुच्छिए, गंधेहिं अमुच्छिए, रसेहिं अमुच्छिए, फासेहि अमुच्छिए, विरए कोहाम्रो माणाप्रो मायानो लोभानो पेज्जानो दोसानो कलहाम्रो प्रभक्खाणांनो पेसुण्णाम्रो परपरिवायातो अरतोरतीमो मायामोसानो मिच्छादसणसल्लाओ, इति से महता प्रादाणातो उवसंते उवहिते पडिविरते। ६८३-जो भिक्षु मनोज्ञ शब्दों, रूपों, गन्धों, रसों, एवं कोमल स्पर्शों में अमूच्छित (अनासक्त) रहता है, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, (प्रेय), द्वेष, कलह, अभ्याख्यान (दोषारोपण), पैशुन्य (चुगली), परपरिवाद (परनिन्दा), संयम में अरति, असंयम में रति, मायामृषा (कपटसहित असत्यदम्भ) एवं मिथ्यादर्शन रूप शल्य से विरत रहता है। इस कारण से वह भिक्षु महान् कर्मों के आदान (बन्ध) से रहित हो जाता है, वह सुसंयम में उद्यत हो जाता (रहता) है, तथा पापों से विरत-निवत्त हो जाता है। ६८४-से भिक्खू जे इमे तस-थावरा पाणा भवंति ते णो सयं समारभति, णो वऽणेहि समा. रभावेति, अण्णे समारभंते वि न समणुजाणइ, इति से महता प्रादाणातो उवसंते उवट्टिते पडिविरते। ६८४-जो ये त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका वह भिक्षु स्वयं समारम्भ (हिंसाजनक व्यापार या प्रवृत्ति) नहीं करता, न वह दूसरों से समारम्भ कराता है, और न ही समारम्भ करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है। इस कारण से वह साध महान कर्मों के प्रादान (बन्धन) से मक्त हो जाता है, शुद्ध संयम में उद्यत रहता है तथा पाप कर्मों से निवृत्त हो जाता है। ६८५-से भिक्खू जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते णो सयं परिगिण्हति, नेवण्णेण परिगिण्हावेति, अण्णं परिगिण्हतं पि ण समणुजाणइ, इति से महया आदाणातो उवसंते उवट्टिते पडिविरते। ६८५-जो ये सचित्त या अचित्त काम-भोग (के साधन) हैं, वह भिक्षु स्वयं उनका परिग्रह
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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