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[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्धं उद्विग्न (भयभीत) किये जाने से, यहाँ तक कि एक रोम मात्र के उखाड़े जाने से वे मृत्यु का-सा कष्ट एवं भय महसूस करते हैं।
ऐसा जान कर समस्त प्राण, भूत, जीव, और सत्त्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उन्हें बलात् अपनी आज्ञा का पालन नहीं कराना चाहिए, न उन्हें बलात् पकड़ कर या दास-दासी आदि के रूप में खरीद कर रखना चाहिए, न ही किसी प्रकार का संताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत) करना चाहिए।
६८०-से बेमि–जे य प्रतीता जे य पडुप्पण्णा जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंता सव्वे ते एवमाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पण्णवेति, एवं परूवेति-सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयन्वा, ण उद्दवेयन्वा, एस धम्मे धुवे णितिए सासते, समेच्च लोगं खेतन्नेहि पवेदिते।
६८०–इसलिए (वही बात) मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ-भूतकाल में (ऋषभदेव आदि)जो भी अर्हन्त (तीर्थंकर) हो चुके, वर्तमान में जो भी (सीमन्धरस्वामी आदि) तीर्थंकर हैं, तथा जो भी भविष्य में (पद्मनाभ आदि) होंगे; वे सभी अर्हन्त भगवान् (परिषद् में) ऐसा ही उपदेश देते हैं; ऐसा ही भाषण करते (कहते) हैं, ऐसा ही (हेतु, दृष्टान्त, युक्ति आदि द्वारा) बताते (प्रज्ञापन करते) हैं, और ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं कि किसी भी प्राणी, भत, जीव और सत्त्व की हिंसा नहीं करन चाहिए, न ही बलात् उनसे आज्ञा-पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में पकड़ कर या खरीद कर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत या हैरान) करना चाहिए । यही धर्म ध्र व है, नित्य है, शाश्वत (सदैव स्थिर रहने वाला) है। समस्त लोक को केवल-ज्ञान के प्रकाश में जान कर जीवों के खेद (पीड़ा) को या क्षेत्र को जानने वाले श्री तीर्थंकरों ने इस धर्म का प्रतिपादन किया है ।
६८१–एवं से भिक्खू विरते पाणातिवातातो जाव विरते परिग्गहातो। णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, णो वमणं, णो धूमं तं (णो धूमणेत्तं) पि प्राविए।
६८१-इस प्रकार वह भिक्षु प्राणातिपात (हिंसा) से लेकर परिग्रह-पर्यन्त पाँचों पाश्रवों से विरत (निवृत्त) हो, दतौन आदि दाँत साफ करने वाले पदार्थों से दाँतों को साफ न करे, शोभा के लिए आँखों में अंजन (काजल) न लगाए, दवा लेकर वमन न करे, तथा अपने वस्त्रों या आवासस्थान को धूप आदि से सुगन्धित न करे और खाँसी आदि रोगों की शान्ति के लिए धूम्रपान न करे।
६८२-से भिक्खू प्रकिरिए अलूसए अकोहे प्रमाणे अमाए अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे । णो प्रासंसं पुरतो करेज्जा-इमेण मे दिट्ठण वा सुएण वा मुएण वा विण्णाएण वा इमेण वा सुचरिय तवनियम-बंभचेरवासेणं इमेण वा जायामातावुत्तिएणं धम्मेणं इतो चुते पेच्चा देवे सिया, कामभोगा वसवत्ती, सिद्ध वा अदुक्खमसुभे, एत्थ वि सिया, एत्थ वि णो सिया।