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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र ६७९ ] (३) गृहस्थ की तरह कतिपय श्रमणों एवं माहनों को आरम्भ परिग्रह युक्त देखकर आत्मार्थी निर्ग्रन्थ भिक्षु विचार करता है-"मैं स्वयं निरारम्भ निष्परिग्रह रहकर इन सारम्भसपरिग्रह गृहस्थों एवं श्रमण-माहनों के आश्रय से अपने मुनिधर्म (तप-संयम) का निर्वाह करूंगा, किन्तु मैं इनकी तरह पहले (दीक्षा से पूर्व) और पीछे (दीक्षा के बाद) प्रारम्भ परिग्रह में लिप्त तथा पापकर्मजनक राग-द्वेष या इनकी क्रियाओं से दूर-अदृश्य, अलिप्त रह कर संयम में प्रवृत्ति करूंगा।" (४) निर्ग्रन्थ साधु आरंभ-परिग्रहवान् गृहस्थों एवं श्रमण-माहनों से दूर रहता है—उनके संसर्ग का त्याग करता है, तथापि उनके आश्रय-निश्रा से मुनिधर्म के पालन का विचार क्यों करता है ? इस प्रश्न का समाधान मूल पाठ में ही कर दिया गया है। वह यह कि वे तो आरंभ-परिग्रह में लिप्त हैं ही, निरवद्य भिक्षा के लिए निर्ग्रन्थ साधु उनका आश्रय ले तो भी वे प्रारम्भ-परिग्रह करेंगे, न ले तो भो करेंगे अतः संयमपालन के लिए शरीर टिकाना आवश्यक है तो पहले से ही आरम्भपरिग्रह में लिप्त गृहस्थों और ऐसे श्रमण-माहनों का आश्रय लेने में कोई दोष नहीं है। इस कारण साधु इनका त्याग करके भी इनके आश्रय से निर्दोष संयम का पालन करते हैं। (५) जो आत्मार्थी भिक्षु आरम्भ-परिग्रह से रहित होता है, वह कर्म-रहस्यज्ञ होता है, वह कर्मबन्धन के कारणों से दूर रहता है, और एक दिन कर्मों का सर्वथा अन्त कर देता है।' पंचम पुरुष : अनेकगुणविशिष्ट भिक्षु-स्वरूप और विश्लेषण ६७६-तत्थ खलु भगवता छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तंजहा–पुढविकायिया जाव तसकायिया । से जहानामए मम अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आउडिज्जमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परिताविज्जमाणस्स वा किलामिज्जमाणस्स वा उद्दविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमातमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा पाउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्जमाणा वा परियाविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमातमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति । एवं णच्चा सव्वे पाणा जाव सम्वे सत्ता णं हंतव्वा, णं अज्जावेयव्वा, ण परिघेत्तन्वा, न परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । ६७६ सर्वज्ञ भगवान् तीर्थंकर देव ने षट्जीवनिकायों (सांसारिक प्राणियों) को कर्मबन्ध के हेतु बताये हैं । जैसे कि-पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक षट्जीवनिकाय हैं । जैसे कोई व्यक्ति मुझे डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले या पत्थर से, अथवा घड़े के फूटे हुए ठीकरे आदि से मारता है, अथवा चाबुक आदि से पीटता है, अथवा अंगुली दिखा कर धमकाता है, या डाँटता है, अथवा ताड़न करता है, या सताता–संताप देता है, अथवा क्लेश करता है, अथवा उद्विग्न करता है, या उपद्रव करता है, या डराता है, तो मुझे दुःख (असाता) होता है, यहाँ तक कि मेरा एक रोम भी उखाड़ता है तो मुझे मारने जैसा दुःख और भय का अनुभव होता है । इसी तरह सभी जीव, सभी भूत, समस्त प्राणी और सर्व सत्त्व, डंडे, मुक्के, हड्डी, चाबुक अथवा ठीकरे से मारे जाने या पीटे जाने, अंगुली दिखाकर धमकाए या डाँटे जाने, अथवा ताड़न किये जाने, सताये जाने, हैरान किये जाने, या १. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक २९५-२९६ का सारांश
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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