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[ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध
(३) इस जगत् में गृहस्थ प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, कई श्रमण और ब्राह्मण भी प्रारम्भ परिग्रह से युक्त होते हैं । ( ऐसी स्थिति में आत्मार्थी संयमी भिक्षु विचार करता है — ) मैं (आर्हत् धर्मानुयायी मुनि) आरम्भ और परिग्रह से रहित हूँ। जो गृहस्थ हैं, वे प्रारम्भ और परिग्रहसहित हैं ही, कोई-कोई श्रमण ( शाक्य भिक्ष) तथा माहन भी प्रारम्भ - परिग्रह में लिप्त हैं । अतः आरम्भ-परिग्रह युक्त पूर्वोक्त गृहस्थवर्ग एवं श्रमण-माहनों के श्राश्रय से मैं ब्रह्मचर्य ( मुनिधर्म) का आचरण करूंगा । (प्रश्न - १) प्रारम्भ - परिग्रह - सहित रहने वाले गृहस्थवर्ग और कतिपय श्रमणब्राह्मणों के निश्राय में ही जब रहना है, तब फिर इनका त्याग करने का क्या कारण है ? ( उत्तर - ) गृहस्थ जैसे पहले प्रारम्भ - परिग्रह सहित होते हैं, वैसे पीछे भी होते हैं, एवं कोई-कोई श्रमण माहन प्रव्रज्या धारण करने से पूर्व जैसे आरम्भ - परिग्रहयुक्त होते हैं, इसी तरह बाद में भी आरम्भपरिग्रह में लिप्त रहते हैं । इसलिए ये लोग सावद्य आरम्भ - परिग्रह से निवृत्त नहीं हैं, अतः शुद्ध संयम का आचरण करने के लिए, शरीर टिकाने के लिए इनका आश्रय लेना अनुचित नहीं है ।
६७८ - जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समण माहणा सारंभा सपरिग्गहा, दुहतो पावाई इति संखाए दोहि. वि अंतेहि श्रदिस्समाणे' इति भिक्खू रीएज्जा ।
से बेमि- पाईणं वा ४ । एवं से परिण्णातकम्मे, एवं से विवेयकम्मे, एवं से वियंतकारए भवतीति मक्खातं ।
६७८ - आरम्भ - परिग्रह से युक्त रहने वाले जो गृहस्थ हैं, तथा जो सारम्भ सपरिग्रह श्रमणमाहन हैं, वे इन दोनों प्रकार (आरम्भ एवं परिग्रह) की क्रियाओं से या राग और द्वेष से अथवा पहले और पीछे या स्वतः और परतः पापकर्म करते रहते हैं । ऐसा जान कर साधु प्रारम्भ और परिग्रह अथवा राग और द्व ेष दोनों के अन्त से ( विहीनता से ) इनसे अदृश्यमान ( रहित) हो इस प्रकार संयम
वृत्त ।
इसलिए मैं कहता हूँ-पूर्व आदि (चारों दिशाओं से आया हुआ जो ( पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त) भिक्षु प्रारम्भ - परिग्रह से रहित है, वही कर्म के रहस्य को जानता है, इस प्रकार वह कर्म बन्धन से रहित होता है तथा वही ( एक दिन) कर्मों का अन्त करने वाला होता है, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है ।
विवेचन – गृहस्थवत् प्रारम्भ-परिग्रह युक्त श्रमण-माहन और इन दोनों से मुक्त निर्ग्रन्थभिक्षुप्रस्तुत दोनों सूत्रों में गृहस्थ के समान प्रारम्भपरिग्रह - दोषलिप्त श्रमण-माहनों की दशा और निर्ग्रन्थ भिक्षु की स्थिति का अन्तर बतलाया गया है । निम्नोक्त चार तथ्य इसमें से फलित होते हैं(१) गृहस्थ के समान सारम्भ और सपरिग्रह श्रमण एवं माहन त्रस स्थावर प्राणियों का आरम्भ करते, कराते और अनुमोदन करते हैं ।
(२) गृहस्थवत् प्रारम्भ परिग्रह युक्त श्रमण एवं माहन सचित्त चित्त काम भोगों को ग्रहण करते, कराते तथा अनुमोदन करते हैं ।
१. तुलना - 'दोहिं अतेहि अदित्समाणे.... '
- आचारांग विवेचन अ. ३, सु. १११, पृ. ९२ — आचारांग विवेचन श्र. ३, सू. १२३, पृ. १०५
'दोहिं वि अंतेहि अदिस्समाणेह - ' 'उभो अंते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो धम्मं देसेति.....' ।
- सुत्तपिटक संयुक्तनिकाय पालि भाग २, पृ. ६६