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________________ २०६ ] [ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्र तस्कन्ध ८६३ - भगवं च णं उदाहु-संतंगतिया पाणा समाउना जेहिं समणोवासगस्स श्रायाणसो जाव णिक्खित्ते, ते सममेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चति ते, महाकाया, ते समाज्या, ते बहुतरगा जाव णो णेयाउए भवति । ८६३ - भगवान् श्रीगौतमस्वामी ने (फिर) कहा - इस जगत् में बहुत से प्राणी समायुक होते हैं, जिनको दण्ड देने ( वध करने) का त्याग श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त किया है । वे (पूर्वोक्त) प्राणी स्वयमेव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । मर कर वे परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं और वे महाकाय भी होते हैं और समायुष्क भी । तथा ये प्राणी संख्या में बहुत होते हैं, इन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का हिंसाविषयक प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । अतः श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषयक बताना न्यायसंगत नहीं है । ८६४–भगवं च णं – उदाहु — संतेगतिश्रा पाणा श्रप्पाउया जेहि समणोवासगस्स श्रायाणसो श्रामरणंताएं डंडे जाव णिक्खित्ते, ते पुव्वामेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया, ते अप्पाउया, ते बहुतरगा पाणा जेहि समणोवासगस्स पच्चवखायं भवति, ते प्रप्पा जहि समणोवासगस्स प्रपच्चक्खायं भवति, इती से महया जाव णो उए भवति । ८६४–भगवान् गौतमस्वामी ने ( श्रागे) कहा - इस संसार में कई प्राणी अल्पायु होते हैं । श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मृत्युपर्यन्त जिनको दण्ड देने ( हनन करने) का त्याग करता है । वे (पूर्वोक्त प्राणी अल्पायु होने के कारण ) पहले ही मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं । मर कर वे परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, महाकाय भी होते हैं और अल्पायु भी । जिन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक अहिंसाविषयक प्रत्याख्यान करता है, वे संख्या में बहुत हैं, जिन प्राणियों के विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता, वे संख्या में अल्प इस प्रकार श्रमणोपासक महान् त्रसकाय की हिंसा से निवृत्त है, फिर भी, आप लोग उसके प्रत्याख्यान को निर्विषय बताते हैं, अतः आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है । 1 ८६५ – भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया समणोवासगा भवंति तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति - णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता जाव पव्वइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्टमुट्ठिपुण्णमा सिणीसु पडिपुण्णं पोसधं श्रणुपालेत्तए णो खलु वयं संचाएमो प्रपच्छिम जाव विहरितए, वयं साम इयं देवकासियं पुरत्या पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं एत्ताव ताव सव्वपाणेह जाव सव्वसतह दंडे णिक्खित्ते सव्वपाण-भूय-जीव-सतह खेमंकरे श्रहमंसि । ( १ ) तत्थ श्रारेणं जे तसा पाणा जहि समणोवासगस्स प्रायाणसो श्रामरणंताए दंडे णिक्खिते ते ततो नाउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ श्रारेणं चेव जे तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स श्रायाणसो श्रामरणंताए दंडे णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति, तहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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