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________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र ८६१ ] [ २०५ ८६१ - भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तं० - आरणिया श्रावसहिया गामणियंतिया कण्हुइरहस्सिया जहि समणोवासगस्स आयाणसो श्रामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, णो बहुसंजया णो बहुपडिविरता पाण- भूत- जीव-सतह, ते अप्पणा सच्चामोसाई एवं विप्पडिवेदेति - श्रहं ण हंतव्वे प्रण्णे हंतव्वा जाव कालमासे कालं किच्चा प्रणयराइं श्रासुरियाई किब्बिसाई जाव उववत्तारो हवंति, ततो विष्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमोरूवत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चति जाव णो णेयाउए भवति । ८६१–भगवान् श्री गौतम ने फिर कहा - " इस विश्व में कई मनुष्य ऐसे भी होते हैं, जो आरण्यक (वनवासी) होते हैं, श्रावसथिक (कुटी, झोंपड़ी आदि बना कर रहने वाले) होते हैं, ग्राम में जाकर किसी के निमंत्रण से भोजन करते हैं, कोई किसी गुप्त रहस्य के ज्ञाता होते हैं, अथवा किसी एकान्त स्थान में रह कर साधना करते हैं । श्रमणोपासक ऐसे आरण्यक आदि को दण्ड देने ( हनन करने) का त्याग, व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त करता है । वे (पूर्वोक्त आरण्यक आदि ) न तो संयमी होते हैं और न ही समस्त सावद्य कर्मों से निवृत । वे प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से विरत नहीं होते । वे अपने मन से कल्पना करके लोगों को सच्ची-झूठी बात इस प्रकार कहते हैं - 'मुझे नहीं मारना चाहिए, दूसरों को मारना चाहिए; हमें श्राज्ञा नहीं देनी चाहिए, परन्तु दूसरे प्राणियों को आज्ञा देनी चाहिए; हमें दास आदि बना कर नहीं रखना चाहिए, दूसरों को रखना चाहिए, इत्यादि । इस प्रकार का उपदेश देने वाले ये लोग मृत्यु का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके (अज्ञानतप के प्रभाव से) किसी असुरसंज्ञकनिकाय में किल्विषी देव के रूप उत्पन्न होते हैं । ( अथवा प्राणिहिंसा का उपदेश देने के कारण ) वे यहाँ से शरीर छोड़ कर या तो बकरे की तरह तिर्यञ्च योनि में ) मूक रूप में उत्पन्न होते हैं, या वे तामस जीव के रूप में नरकगति में ) उत्पन्न होते हैं। वे चाहे मनुष्य हों, देव हों या नारक, किसी भी अवस्था में त्रसरूप ही होते हैं (अत: वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी, वे महाकाय भी होते हैं और चिरस्थिति वाले भी । वे संख्या में भी बहुत होते हैं । इसलिए श्रमणोपासक का सजीव को न मारने का प्रत्याख्यान निर्विषय है, आपका यह कथन न्याययुक्त नहीं है ।' ८६२ - भगव ं च णं उदाहु-संतेगतिया पाणा दीहाउया जहि समणोवासगस्स प्रयाणसो जाव णक्खित्ते, ते पच्छामेव कालं करेंति, करेत्ता पारलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, [ते] तसा वि [बुच्चंति ], ते महाकाया, ते चिरद्वितीया, ते दीहाउया, ते बहुतरगा [पाणा ] जेहि समणोवासगस्स प्रयाण [ सो ] जाव णो णेयाउए भवति । ८६२ – (इसके पश्चात्) भगवान् श्री गौतम ने कहा - ' इस संसार में बहुत से प्राणी दीर्घायु होते हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड (हिंसा) का प्रत्याख्यान करता है । इन प्राणियों की मृत्यु पहले ही हो जाती है, और वे यहाँ से मर कर परलोक में जाते हैं । वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी; एवं वे महाकाय और चिरस्थितिक (दीर्घायु) होते हैं । प्राणी संख्या में भी बहुत होते हैं, इसलिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान इन प्राणियों की अपेक्षा से सुप्रत्याख्यान होता है । इसलिए श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायोचित नहीं है ।
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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