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________________ आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र ८२८] [१७७ श्रमण समस्त प्राणियों को दण्ड देने (हनन करने) का त्याग करते हैं, इसलिए वे (दोषयुक्त)पाहारादि का उपभोग नहीं करते । इस जैनशासन में संयमी साधकों का यही परम्परागत धर्म (अनुधर्म) है । ८२८–निग्गंथधम्मम्मि इमा समाही, अस्सि सुठिच्चा प्रणिहे चरेज्जा । बुद्ध मुणी सीलगुणोववेते इच्चत्थतं पाउणती सिलोगं ॥४२॥ ८२८. इस निर्ग्रन्थधर्म में इस समाधि (आचार-समाधि या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप समाधि) में सम्यक् प्रकार से स्थित हो कर मायारहित हो कर इस निर्ग्रन्थ धर्म में जो विचरण करता है, वह प्रबुद्ध मुनि (जगत् की त्रिकालावस्था पर मनन करने–जानने वाला) शील और गुणों से युक्त होकर अत्यन्त पूजा-प्रशंसा (श्लोक को) प्राप्त करता है। विवेचन-बौद्धों के अपसिद्धान्त का पाक द्वारा खण्डन एवं स्वसिद्धान्त मण्डन-प्रस्तुत १७ सूत्रगाथाओं में पहली चार गाथाओं में आर्द्रक मुनि के समक्ष बौद्ध भिक्षुओं ने जो अपना हिंसायुक्त प्राचार प्रस्तुत किया है, वह अंकित है। शेष १३ गाथाओं में से कुछ गाथाओं में आर्द्र क मुनि द्वारा बौद्धमत का निराकरण एवं फिर कुछ गाथाओं में जैनेन्द्रसिद्धान्त का समर्थन अंकित है। बौद्ध भिक्षुत्रों द्वारा प्रस्तुत चार अपसिद्धान्त-(१) कोई व्यक्ति खली के पिण्ड को पुरुष एवं तुम्बे को कुमार समझ कर उसे शूल से बींध कर पकाए तो प्राणिवध के पाप से लिप्त होता है, (२) कोई व्यक्ति पुरुष को खली का पिण्ड एवं कुमार को तुम्बा समझकर पकाए तो प्राणिवध के पाप से लिप्त नहीं होता, (३) कोई पुरुष मनुष्य या बालक को खली का पिण्ड झकर आग में पकाए तो वह भोजन पवित्र है और बौद्ध भिक्षयों के लिए भक्ष्य है। और (४) इस प्रकार का (मांस) भोजन तैयार करके जो प्रतिदिन दो हजार भिक्षुओं को खिलाता है, वह महान् पुण्यस्कन्ध उपार्जित करके आरोप्य देव होता है।' प्राकमुनि द्वारा इन अपसिद्धान्तों का खण्डन-(१) प्राणिघातजन्य आहार संयमो साधुओं के लिए अयोग्य है (२) प्राणिघात से पाप नहीं होता, ऐसा कहने-सुनने वाले दोनों अबोधि बढ़ाते हैं । (३) खली के पिण्ड में पुरुषबुद्धि या पुरुष में खली के पिण्ड की बुद्धि सम्भव नहीं है। अतएव उक्त ऐसा कथन आत्मवंचनापूर्ण और असत्य है । (४) पापोत्पादक भाषा कदापि न बोलनी चाहिए, क्योंकि वह कर्मबन्धजनक होती है। (५) दो हजार भिक्षुओं को जो पूर्वोक्तरीति से प्रतिदिन मांसभोजन कराता है, उसके हाथ रक्तलिप्त होते हैं, वह लोकनिन्द्य है ; क्योंकि मांसभोजन तैयार होता है-पुष्ट भेड़े को मार कर नमक-तेल आदि के साथ पका कर मसालों के बघार देने से; वह हिंसाजनक है (६) जो बौद्ध भिक्षु यह कहते हैं कि पूर्वोक्त रीति से गृहस्थ द्वारा तैयार किया हुआ भोजन करते हुए हम पापलिप्त नहीं होते, वे पुण्य-पाप के तत्त्व से अनभिज्ञ, अनार्य प्रकृति अनार्य कर्मी, रसलोलुप एवं स्वपरवञ्चक है। अतः मांस हिंसाजनित, रौद्रध्यान का हेतु, अपवित्र, निन्द्य, अनार्यजन सेवित एवं नरकगति का कारण है। मांसभोजो, आत्मद्रोही और आत्म-कल्याणद्वेषी है। वह मोक्षमार्ग का आराधक नहीं है। १. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३९६ का सारांश २. वही, पत्रांक ३९७ से ३९९ का सारांश
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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