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________________ १७६] [ सूत्रकृतांगसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध 1 ८२२ - सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए नितिए भिक्खुयाणं । श्रसंजए लोहियपाणि से ऊ, णिगच्छती गरहमिहेव लोए ||३६|| ८२२. जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार स्नातक भिक्षुत्रों को (पूर्वोक्त मांसपिण्ड का ) भोजन कराता है, वह असंयमी रक्त से रंगे हाथ वाला पुरुष इसी लोक में निन्दापात्र होता है । ८२३ – थूलं उरब्भं इह मारियाणं, उद्दिट्ठभत्तं च पकप्पइत्ता । तं लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पकरेंति मंसं ॥३७॥ ८२४ - तं भुजमाणा पिसितं पभूतं, न उवलिप्पामो वयं रएणं । इच्चेवमाहंसु श्रणज्जधम्मा, प्रणारिया बाल रसेसु गिद्धा ||३८|| ८२३-८२४. आपके मत में बुद्धानुयायी जन एक बड़े स्थूल भेड़े को मार कर उसे बौद्ध भिक्षुत्रों के भोजन के उद्देश्य से कल्पित कर ( बना कर ) उस (भेड़े के मांस ) को नमक और तेल के साथ पकाते हैं, फिर पिप्पली आदि द्रव्यों (मसालों) से बघार कर तैयार करते हैं । (यह मांस बौद्धभिक्षुत्रों के भोजन के योग्य समझा जाता है, यही उनके आहार ग्रहण की रीति है । ) अनार्यों के-से स्वभाव वाले अनार्य ( कर्मकारक ), एवं रसों में गृद्ध ( लुब्ध) वे अज्ञानी बौद्धभिक्षु कहते हैं कि ( इस प्रकार से बना हुआ ) बहुत-सा मांस खाते हुए भी हम लोग पापकर्म (रज) से लिप्त नहीं होते । ८२५ - जे यावि भुजंति तहप्पगार, सेवंति ते पावमजाणमाणा । मणं न एयं कुसला करेंति, वाया वि एसा बुइता तु मिच्छा ||३६|| ८२५. जो लोग इस प्रकार के मांस का सेवन करते हैं, वे (पुण्य-पाप के ) तत्त्व को नहीं जानते हुए पाप का सेवन करते हैं । जो पुरुष कुशल (तत्त्वज्ञान में निपुण) हैं, वे ऐसे मांस खाने की इच्छा भी नहीं करते ( मन में भी नहीं लाते ) । मांस भक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है । ८२६ - सव्वेसि जीवाणा दयट्टयाए, सावज्जदोसं परिवज्जयंता । तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दिभत्तं परिवज्जयंति ॥ ४० ॥ ८२६. समस्त जीवों पर दया करने के लिए, सावद्यदोष से दूर रहने वाले तथा (आहारादि में ) सावद्य (पापकर्म) की आशंका ( छानबीन ) करने वाले, ज्ञातपुत्रीय ( भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य) ऋषिगण उद्दिष्ट भक्त (साधु के निमित्त प्रारम्भ करके तैयार किये हुए भोजन) का त्याग करते हैं । ८२७ - भूताभिसंकाए दुगु छमाणा, तम्हा ण भुंजंति तहप्पकारं, सव्वेसि पाणामिहायदंड | एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥ ४१ ॥ ८२७. प्राणियों के उपमर्दन की आशंका से सावद्य अनुष्ठान से विरक्त रहने वाले निर्ग्रन्थ
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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