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[सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त का समर्थन-(१) निर्ग्रन्थ भिक्षु समस्त प्राणियों पर दयालु होने से प्रारम्भजनित या हिंसाजनित आहारादि के त्यागी होते हैं । वे सात्त्विक आहार भी उद्गम, उत्पादना एवं एषणा के ४२ दोषों से रहित शुद्ध कल्पनीय ग्रहण करते हैं, इसलिए मांसभोजन तो क्या, उद्दिष्ट भोजन का भी त्याग करते हैं। वे कपटभाषा का (बौद्धों की तरह) प्रयोग करके अभक्ष्य आहारादि नहीं लेते । (२) इस निर्ग्रन्थ धर्म के आचरण के प्रभाव से पदार्थों के यथार्थज्ञाता समस्त द्वन्द्वों से रहित मूलगुण एवं उत्तरगुणों से सम्पन्न साधक दोनों लोकों में प्रशंसनीय बन जाते हैं।
'अणुधम्मो'- इसके दो अर्थ हैं-(१) पहले तीर्थंकर ने इस निर्ग्रन्थ धर्म का प्राचारण किया, तत्पश्चात् उनके शिष्यगण इसका प्राचारण करने लगे, इसलिए इस धर्म को अनुधर्म कहते हैं । (२) अथवा यह अणुधर्म है, सूक्ष्मधर्म है, शिरीष पुष्प सम कोमल है, जरा-सा भी अतिचार (दोष) लगने पर नष्ट होने लगता है।
'निग्गंथधम्मो-निर्ग्रन्थ का अर्थ यहाँ प्रसंगवश किया गया है- “जो सब प्रकार के ग्रन्थों = कपटों से रहित हो, उनका धर्म निर्ग्रन्थ धर्म है।" १ पशुवध-समर्थक मांसभोजी ब्राह्मणों को भोजन का फल
८२६-सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए माहणाणं ।
__ ते पुण्णखंधं सुमहज्जिणित्ता, भवंति देवा इति वेयवानो ॥४३॥
८२६-(बौद्ध भिक्षुत्रों को परास्त करके आर्द्र कमुनि आगे बढ़े तो ब्राह्मणगण उनके पास आ कर कहने लगे-(हे आर्द्र क ! ) जो पुरुष प्रति-दिन दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को भोजन कराता है, वह महान् पुण्यपुञ्ज उपाजित करके देव होता है, यह वेद का कथन है।
८३०-सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए कुलालयाणं ।।
से गच्छति लोलुवसंपगाढे, तिव्वाभितावी परगाभिसेवी ॥४४॥ ८३०-(ब्राह्मणों के मन्तव्य का प्रतिकार करते हुए प्रार्द्रक ने कहा-) क्षत्रिय आदि कुलो में भोजन के लिए घूमने वाले दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को जो (दाता) प्रतिदिन भोजन कराता है, वह व्यक्ति मांसलोलुप प्राणियों (पक्षियों) से व्याप्त (प्रगाढ़) नरक में जा कर निवास करता है, जहाँ वह तीव्रतम ताप भोगता रहता है।
८३१-दयावरं धम्म दुगुंछमाणे, वहावहं धम्म पसंसमाणे।
एग पि जे भोययती असोलं, णिवो णिसं जाति कतो सुरेहिं ? ॥४५॥
१. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३९९ र (ख) निर्गतः ग्रन्थेभ्यः कपटेभ्यइति निर्ग्रन्थः । -सूत्रकृतांग शी. वृत्ति पत्रांक ३९९ में उद्धृत । २. कुलालयाणं-'कुलानि गहाण्यामिषान्वेषिणार्थिनो नित्यं येऽटन्ति ते कुलाटा:-मार्जारा:, कुलाटा इव कुलाटा
ब्राह्मणाः । यदि वा कुलानि क्षत्रिया दिगृहाणि तानि नित्यं पिण्डपातान्वेषिणां परत' काणामालयो येषां निन्द्यजीविकोपगतानां ते कुलालयाः । -सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ४००