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[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध
(८) औदारिक आदि पांचों शरीरों के कारणों तथा लक्षणादि में भेद होने से उनमें एकान्त अभेद नहीं है । जैसे कि औदारिक शरीर के कारण उदारपुद्गल हैं, कार्मण शरीर के कार्मण वर्गणा के पुद्गल तथा तैजस्शरीर के कारण तेजसवर्गणा के पुद्गल हैं । अतः इसके कारणों में भिन्नता होने से ये एकान्त अभिन्न नहीं हैं, तथैव औदारिक आदि शरीर तैजस और कार्मण शरीर के साथ ही उपलब्ध होते हैं तथा सभी शरीर सामान्यतः पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं इन कारणों से भी इनमें सर्वथा अभेद मानना उचित नहीं है। इसी प्रकार उनमें एकान्त भेद भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि सभी शरीर एक पुद्गल द्रव्य से निर्मित हैं । अतः अनेकान्त दृष्टि से इन शरीरों में कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद मानना ही व्यावहारिक राजमार्ग है; शास्त्रसम्मत आचार है ।
(8) सांख्यदर्शन का मत है-जगत् के सभी पदार्थ प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं, अतः प्रकृति ही सबका उपादान कारण है, और वह एक ही है, इसलिए सभी पदार्थ सर्वात्मक हैं, सब पदार्थों में सबकी शक्ति विद्यमान है, यह एक कथन है। दूसरे मतवादियों का कथन है कि देश, काल, एवं स्वभाव का भेद होने से सभी पदार्थ सबसे भिन्न हैं, अपने-अपने स्वभाव में स्थित हैं, उनकी शक्ति भी परस्पर विलक्षण है, अतः सब पदार्थों में सबकी शक्ति नहीं है। इस प्रकार दोनों एकान्त कथन हैं, जो उचित नहीं है। वस्तुतः सभी पदार्थ सत्ता रखते हैं, वे ज्ञेय हैं, प्रमेय हैं, इसलिए अस्तित्व, गेयत्व, प्रमेयत्व रूप सामान्य धर्म की दृष्टि से भी पदार्थ कथञ्चित् एक हैं, तथा सबके कार्य, गुण, स्वभाव, नाम एवं शक्ति एक दूसरे से भिन्न हैं, इसलिए सभी पदार्थ कथंचित् परस्पर भिन्न भी हैं। अतएव द्रव्य-पर्यायदृष्टि से कथञ्चित् अभेद एवं भेद रूप अनेकान्तात्मक कथन करना चाहिए।
इन विषयों में अथवा अन्य पदार्थों के विषय में एकान्तदृष्टि रखना या एकान्त कथन करना अनाचार है, दोष है ।' नास्तिकता और आस्तिकता के आधारभूत संज्ञाप्रधान सूत्र
७६५–णत्थि लोए अलोए वा, णेवं सण्णं निवेसए।
अस्थि लोए अलोए वा, एवं सणं निवेसए ॥१२॥ ७६५–लोक नहीं है या अलोक नहीं है ऐसी संज्ञा (बुद्धि-समझ नहीं रखनी चाहिए) अपितु) लोक है और अलोक (आकाशास्तिकायमात्र) है, ऐसी संज्ञा रखनी चाहिए।
७६६–णस्थि जीवा अजीवा वा, णेवं सणं निवेसए।
अत्थि जीवा अजीवा वा, एवं सणं निवेसए ॥१३॥ ___ ७६६–जीव और अजीव पदार्थ नहीं हैं, ऐसी संज्ञा नहीं रखनी चाहिए, अपितु जीव और अजीव पदार्थ हैं, ऐसी संज्ञा (बुद्धि) रखनी चाहिए ।
७६७-णत्थि धम्मे अधम्मे वा, णेवं सण्णं निवेसए।
अस्थि धम्में अधम्मे वा, एवं सणं निवेसए ॥१४॥
१. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक ३७५-३७६ ।