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[सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (२) सभी प्रशास्ता या भव्य एक दिन भवोच्छेद करके मुक्त हो जाएँगे, (संसार भव्य जीव
शून्य हो जाएगा), ऐसा वचन । (३) सभी जीव एकान्ततः विसदृश हैं, ऐसा वचन । (४) सभी जीव सदा कर्मग्रन्थि से बद्ध रहेंगे, ऐसा एकान्त वचन । (५) सभी जीव या तीर्थंकर सदा शाश्वत रहेंगे, ऐसा एकान्त वचन । (६) एकेन्द्रियादि क्षुद्र प्राणी की या हाथी आदि महाकाय प्राणी की हिंसा से समान वैर
होता है, अथवा समान वैर नहीं होता, ऐसा एकान्त वचन । (७) आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोक्ता और दाता एकान्त रूप से परस्पर पाप
कर्म से लिप्त होता है, अथवा सर्वथा लिप्त नहीं होता, ऐसा एकान्त वचन । (८) औदारिक आदि पांचों शरीर परस्पर अभिन्न हैं. अथवा भिन्न हैं. ऐसा एकान्त कथन । (९) सब पदार्थों में सबकी शक्ति है, अथवा नहीं है, ऐसा एकान्त कथन ।
एकान्त दृष्टि या एकान्त कथन से दोष-(१) प्रत्येक पदार्थ द्रव्यरूप' से नित्य है, किन्तु पर्यायरूप (विशेषतः) से अनित्य है । एकान्त नित्य या अनित्य मानने पर लोक व्यवहार नहीं होता, जैसे 'लोक में कहा जाता है, यह वस्तु नई है, यह पुरानी है, यह वस्तु अभी नष्ट नहीं हुई, यह नष्ट हो गई है। आध्यात्मिक व्यवहार भी नहीं हो सकता है, जैसे-आत्मा को एकान्त नित्य (कूटस्थ) मानने पर उसके बन्ध और मोक्ष का तथा विभिन्न गतियों में भ्रमण और एकदिन चतुर्गतिरूप संसार से मुक्त होने का व्यवहार नहीं हो सकता, तथा एकान्त अनित्य (क्षणिक) मानने पर धर्माचरण या साधना का फल किसी को न मिलेगा, यह दोषापत्ति होगी। लोक के सभी पदार्थों को कथंचित् नित्यानित्य मानना ही अनेकान्त सिद्धान्त सम्मत प्राचार है, जैसे सोना, सोने का घडा और स्वर्णमुकूट तीन पदार्थ हैं। सोने के घट को गलवा कर राजकुमार के लिए मुकुट बना तो उसे हर्ष हुआ, किन्तु राजकुमारी को घड़ा नष्ट होने से दुःख; लेकिन मध्यस्थ राजा को दोनों अवस्थाओं में सोना बना रहने से न हर्ष हा, न शोक ; ये तीनों अवस्थाएँ कथञ्चित् नित्यानित्य मानने पर बनती हैं।
(२) भविष्यकाल भी अनन्त है और भव्यजीव भी अनन्त हैं, इसलिए भविष्यकाल की तरह भव्य जीवों का सर्वथा उच्छेद कदापि नहीं हो सकता । किसी भव्यजीव विशेष का संसारोच्छेद होता भी है।
. (३) भवस्थकेवली प्रवाह की अपेक्षा से महाविदेह क्षेत्र में सदैव रहते हैं, इसलिए शाश्वत किन्तु व्यक्तिगतरूप से सिद्धि को प्राप्त होते हैं, इस अपेक्षा से वे शाश्वत नहीं हैं। ऐसा ही व्यवहार देखा जाता है।
(४) सभी जीव समानरूप से उपयोग वाले, असंख्यप्रदेशी और अमूर्त हैं, इस अपेक्षा से वे कथंचित सदश हैं, तथा भिन्न-भिन्न कर्म, गति, जाति, शरीर आदि से युक्त होते हैं, इस अपेक्षा से कथंचित् विसदृश भी हैं।
१. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ३७२ से ३७३ तक का सारांश २. "घट-मौलि-सुवर्णार्थी, नाशोत्पाद-स्थितिस्वयम् ।
शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥"