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________________ अनाचारभुत : पंचम अध्ययन : सूत्र ७५४] [१४९ ७६१-अहाकडाइं भुजंति अण्णमण्णे' सकम्मुणा। उवलित्ते ति जाणेज्जा, अणुवलित्ते ति वा पुणो ॥८॥ ७६२–एतेहि दोहि ठाणेहि, ववहारो ण विज्जती । एतेहिं दोहि ठाणेहि, प्रणायारं तु जाणए ॥६॥ ७६१-७६२–प्राधाकर्म दोष युक्त आहारादि का जो साधु उपभोग करते हैं, वे दोनों (प्राधाकर्मदोष युक्त आहारादिदाता तथा उपभोक्ता) परस्पर अपने (पाप) कर्म से उपलिप्त होते हैं, अथवा उपलिप्त नहीं होते, ऐसा जानना चाहिए। इन दोनों एकान्त मान्यताओं से व्यवहार नहीं चलता है, इसलिये इन दोनों एकान्त मन्तव्यों का आश्रय लेना अनाचार समझना चाहिए। ७६३–जमिदं उरालमाहारं, कम्मगं च तमेव य । सव्वत्थ वीरियं अस्थि, पत्थि सव्वत्थ वीरियं ॥१०॥ ७६४–एतेहिं दोहि ठाणेहि, ववहारो ण विज्जती। एतेहिं दोहि ठाणेहि, प्रणायारं तु जाणए ॥११॥ ७६३-७६४–यह जो (प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला) औदारिक शरीर है, आहारक शरीर है, और कार्मण शरीर है, तथैव वैक्रिय एवं तैजस शरीर है; ये पांचों (सभी) शरीर एकान्ततः भिन्न नहीं हैं, (एक ही हैं) अथवा ये पांचों सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं, ऐसे एकान्तवचन नहीं कहने चाहिए। तथा सब पदार्थों में सब पदार्थों की शक्ति (वीर्य) विद्यमान है, अथवा सब पदार्थों में सबकी शक्ति नहीं ही है। ऐसा एकान्तकथन भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन दोनों प्रकार के एकान्त विचारों से व्यवहार नहीं होता । अतः इन दोनों एकान्तमय विचारों का प्ररूपण करना अनाचार समझना चाहिए। विवेचन-प्राचार के निषेधात्मक विवेकसूत्र-प्रस्तुत दस सूत्रगाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने दर्शन-ज्ञान-चारित्रसम्बन्धी अनाचार के निषेधात्मक विवेकसूत्र प्रस्तुत किये हैं । अनाचार का मूल कारण एकान्त एकपक्षाग्रही दृष्टि, वचन, ज्ञान, विचार या मन्तव्य है; क्योंकि एकान्त एकपक्षाग्रह से लोक व्यवहार या शास्त्रीय व्यवहार नहीं चलता। इन सब विवेकसूत्रों के फलितार्थ है-अनेकान्तवाद का आश्रय लेने का निर्देश । वे निषेधरूप नौ विवेकसूत्र-इस प्रकार हैं (१) लोक एकान्त नित्य है या एकान्त अनित्य, ऐसी एकान्त दृष्टि । १. अण्णमण्णे--अन्योन्य का अर्थ चरिणकार की दृष्टि से--अन्य इति असंयतः, तस्मादन्यः संयतः। अर्थात् अन्य ___ का अर्थ-असंयत-गृहस्थ और उससे अन्य संयत-साधु । दोनों एक दूसरे को लेकर (पाप) कर्म से लिप्त होते हैं या नहीं होते हैं। -सू. कृ. चूणि (मू. पा. टि.) पृ. २१८
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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