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________________ प्रत्याख्यान - क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र ७५२ ] [ १४३ विवेचन-प्रसंज्ञी - संज्ञी दोनों प्रकार श्रप्रत्याख्यानी प्राणी सदैव पापरत - प्रस्तुत तीन सूत्रों में शास्त्रकार ने प्रत्याख्यानरहित सभी प्रकार के प्राणियों को सदैव पापकर्मबन्ध होते रहने का सिद्धान्त दृष्टान्तपूर्वक यथार्थ सिद्ध किया है । इस त्रिसूत्री में से प्रथम सूत्र में प्रश्न उठाया गया है, जिसका दो सूत्रों द्वारा समाधान किया गया है । प्रेरक द्वारा नये पहलू से उठाया गया प्रश्न – सभी प्रप्रत्याख्यानी जीव सभी प्राणियों के शत्रु हैं, यह कथन युक्तिसंगत नहीं जँचता; क्योंकि संसार में ऐसे बहुत से प्राणी हैं, जो देश, काल एवं स्वभाव से अत्यन्त दूर, अतिसूक्ष्म एवं सर्वथा अपरिचित हैं, न तो वे प्रांखों से देखने में आते हैं, न ही कानों से उनके नाम सुनने में आते हैं, न वे इष्ट होते हैं न ज्ञात होते है ।' अत: उनके साथ कोई सम्बन्ध या व्यवहार न रहने से किसी भी प्राणी की चित्तवृत्ति उन प्राणियों के प्रति हिंसात्मक कैसे बनी रह सकती है ? इस दृष्टि से अप्रत्याख्यानी जीव समस्त प्राणियों का घातक कैसे माना जा सकता है ? इसी प्रकार जो प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापों के विषय में सर्वथा अज्ञात हैं, वे उन पापों से कैसे लिप्त हो सकते हैं ? यथार्थ समाधान – दो दृष्टान्तों द्वारा -जो प्राणी जिस प्राणी की हिंसा से निवृत्त नहीं, वह वध्य प्राणी भले ही देश - काल से दूर, सूक्ष्म, अज्ञात एवं अपरिचित हो; तो भी अप्रत्याख्यानी प्राणी उसका घातक ही कहा जायगा । उसकी चित्त वृत्ति उनके प्रति हिंसक ही है । इसी प्रकार जो हिंसादि पापों से विरत नहीं, वह चाहे उन पापों से अज्ञात हो फिर भी अविरत कहलाएगा, इसलिए उसके उन सब पापकर्मों का बन्ध होता रहेगा । ग्रामघातक व्यक्ति ग्राम से दूर चले गये प्राणियों का भले ही घात न कर पाए, किन्तु है वह उनका घातक ही, क्योंकि उसकी इच्छा समग्र ग्राम के घात की है । अतः प्रत्याख्यानी प्राणी ज्ञात-अज्ञात सभी प्राणियों का हिंसक है, समस्त पापों में लिप्त है, भले ही वह १८ पापस्थानों में से एक पाप करता हो । प्रथम दृष्टान्त - एक संज्ञी प्राणी है, उसने पृथ्वीकाय से अपना कार्य करना निश्चित किया है । शेष सब कायों के प्रारम्भ का त्याग कर दिया है । यद्यपि वह पृथ्वीकाय में भी देश-काल से दूरवर्ती समग्र पृथ्वीकाय का आरम्भ नहीं करता, एक देशवर्ती अमुक पृथ्वी विशेष का ही आरम्भ करता है, किन्तु उसके पृथ्वीकाय के प्रारम्भ या घात का प्रत्याख्यान न होने से समग्र पृथ्वीकाय की हिंसा ( आरम्भ ) का पाप लगता है, वह प्रमुक दूरवर्ती पृथ्वीकाय का अनारम्भक या प्रघातक नहीं, आरम्भक एवं घातक ही कहा जाएगा । इसी प्रकार जिस संज्ञी जीव ने छहों काया के प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं किया है, वह अमुक काय के जीव की या देश-काल से दूरवर्ती प्राणियों हिंसा न करता हुआ भी प्रत्याख्यान न होने से षट्कायिक जीवों का हिंसक या घातक ही है । इसी प्रकार १८ पापस्थानों का प्रत्याख्यान न करने पर उसे १८ ही पापस्थानों का कर्त्ता माना जाएगा, भले ही वह उन पापों को मन, वचन, काया व वाक्य से समझबूझ कर न करता हो । दूसरा दृष्टान्त - प्रसंज्ञी प्राणियों का है - पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक तथा कोई कोई सकाय (द्वीन्द्रिय प्रादि) तक के जीव असंज्ञी भी होते हैं, वे सम्यग्ज्ञान, विशिष्ट चेतना, या द्रव्य मन से रहित होते हैं । ये सुप्त प्रमत्त या मूच्छित के समान होते । इनमें तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, वस्तु की आलोचना करके पहचान करने, मनन करने, शब्दों का स्पष्ट उच्चारण करने तथा शरीर से स्वयं करने, कराने या अनुमोदन करने की शक्ति नहीं होती, इनमें मन, वचन, काय का विशिष्ट 1
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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