________________
१४४ ]
[ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध व्यापार नहीं होता। फिर भी ये असंज्ञी प्राणी प्राणिहिंसा एवं अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान न होने से दूसरे प्राणियों के घात की योग्यता रखते हैं, दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी हिंसात्मक दुष्ट आशय इनमें रहता है, ये प्राणियों को दुःख, शोक, संताप एवं पीड़ा उत्पन्न करने से विरत नहीं कहे जा सकते । पाप से विरत न होने से ये सतत अठारह ही पापस्थानों में लिप्त या प्रवृत्त कहे जाते हैं।
निष्कर्ष-यह है कि प्राणी चाहे संज्ञी यो या असंज्ञी, जो प्रत्याख्यानी नहीं है, वह चाहे जैसी अवस्था में हो. वध्य प्राणी चाहे देश-काल से दर हो. चाहे वह (वधक) प्राणीस स्थिति में मन-वचन-काया से किसी भी प्राणी की घात न कर सकता हो, स्वप्न में भी घात की कल्पना न आती हो, सुषुप्त चेतनाशील हो या मूच्छित हो, तो भी सब प्राणियों के प्रति दुष्ट आशय होने से तथा अठारह पापस्थानों से निवृत्त न होने से उसके सतत पापकर्म का बन्ध होता रहता है।'
__ संजी-असंज्ञी का संक्रमण : एक सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण-शास्त्रकार ने सूत्र ७५२ में इस मान्यता का खण्डन किया है कि संज्ञी मर कर संज्ञी ही होते हैं, असंज्ञी असंज्ञी ही। जीवों की गति या योनि कर्माधीन होती है । अतः कर्मों की विचित्रता के कारण-(१) संज्ञी से असंज्ञी भी हो जाता है, (२) असंज्ञी से भी संज्ञी हो जाता है (३) कभी संज्ञी मर कर संज्ञी बन जाता है, (४) और कभी असंज्ञी मर कर पुनः असंज्ञी हो जाता है । इस दृष्टि से देवता सदा देवता ही बने रहेंगे, नारकी सदा नारकी है, यह सिद्धान्त युक्तियुक्त नहीं है । संयत, विरत पापकर्म प्रत्याख्यानी कौन और कैसे ?
. ७५३-चोदकः-से कि कुव्वं कि कारवं कहं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे भवति ?।
प्राचार्य पाह-तत्थ खलु भगवता छज्जीवणिकायाया हेऊ पण्णता, तंजहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया, से जहानामए मम अस्सातं डंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा प्रातोडिज्जमाणस्स वा जाव उद्दविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमातमवि विहिंसक्कारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सम्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा प्रातोडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिजमाणा वा तालिज्जमाणा वा जाव उद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमातमवि विहिंसक्कारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं णच्चा सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतवा जाव ण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णितिए सासते समेच्च लोगं खेत्तण्णेहि पवेदिते । एवं से भिक्खू विरते पाणातिवातातो जाव मिच्छादसणसल्लातो । से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, नो अंजणं, णो वमणं, णो धूवणित्ति पि प्राइते । से भिक्खू अकिरिए अलसए अकोहे प्रमाणे जाव प्रलोभे उवसंते परिनिव्वडे। - एस खलु भगवता अक्खाते संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिते यावि भवति त्ति बेमि ।
॥पच्चक्खाणकिरिया चउत्थमज्झयणं समत्तं ।
१. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३६६ से ३६८ का सारांश २. वही, पत्रांक ३६९ का सारांश