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________________ १४२] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध तथापि वे अज्ञानी प्राणी भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के दिन-रात सोते या जागते हर समय शत्रु-से बने रहते हैं, उन्हें धोखा देने में तत्पर रहते हैं, उनके प्रति सदैव हिंसात्मक (भावमनोरूप-) चित्तवृत्ति रखते हैं, इसी कारण वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों में सदा लिप्त रहते हैं। इस प्रकार यद्यपि असंज्ञी जीवों के मन (द्रव्यमन) नहीं होता, और न ही वाणी होती है, तथापि वे (अप्रत्याख्यानी होने से) समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख देने, शोक उत्पन्न करने, विलाप कराने, रुलाने, पीड़ा देने, वध करने, तथा परिताप देने अथवा उन्हें एक ही साथ (सामूहिकरूप से) दुःख, शोक, विलाप, रुदन, पीड़न, संताप वध-बन्धन, परिक्लेश आदि करने से विरत नहीं होते, अपितु पापकर्म में सदा रत रहते हैं। इस प्रकार वे प्राणी असंज्ञी होते हुए भी अहर्निश प्राणातिपात में प्रवृत्त कहे जाते हैं, तथा मृषावाद आदि से लेकर परिग्रह तक में तथा मिथ्यादर्शनशल्य तक के समस्त पापस्थानों में प्रवृत्त कहे जाते हैं। ७५२-सव्वजोणिया वि खलु सत्ता सण्णिणो होच्चा असणियो होति, असण्णिणो होच्चा सणिणो होंति, होज्ज सण्णी अदुवा असण्णी, तत्थ से अविविचिया अविधणिया असमुच्छिया अणणुताविया सण्णिकायाप्रो सणिकायं संकमंति १, सण्णिकायाप्रो वा असण्णिकायं संकमति २, असण्णिकायानो वा सण्णिकायं संकमंति ३, असण्णिकायानो वा असण्णिकायं संकमंति ४। जे एते सण्णी वा असण्णी वा सव्वे ते मिच्छायारा निच्चं पसढविप्रोवातचित्तदंडा, तं०पाणातिवाते जाव मिच्छादसणसल्ले । एवं खलु भगवता अक्खाते असंजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते, से बाले अवियारमण-वयस-कायवक्के, सुविणमवि अपासओ पावे य से कम्मे कज्जति । ७५२-सभी योनियों के प्राणी निश्चितरूप से संज्ञी होकर असंज्ञी (पर्याय में उत्पन्न) हो जाते हैं, तथा असंज्ञी होकर संज्ञी (पर्याय में उत्पन्न) हो जाते हैं । वे संज्ञी या असंज्ञी होकर यहाँ पापकर्मों को अपने से अलग (पृथक्) न करके, तथा उन्हें न झाड़कर (तप आदि से उनकी निर्जरा न करके), (प्रायश्चित्त आदि से) उनका उच्छेद न करके तथा (आलोचना-निन्दना-गर्हणा आदि से) उनके लिए पश्चात्ताप न करके वे संज्ञी के शरीर से संज्ञी के शरीर में आते (जन्म लेते) हैं, अथवा संज्ञी के शरीर से असंज्ञी के शरीर में संक्रमण करते (पाते) हैं, अथवा असंज्ञीकाय से संज्ञीकाय में संक्रमण करते हैं अथवा असंज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में आते (संक्रमण करते) हैं। जो ये संज्ञी अथवा असंज्ञी प्राणी होते हैं, वे सब मिथ्याचारी और सदैव शठतापूर्ण हिंसात्मक चित्तवृत्ति धारण करते हैं। अतएव वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापस्थानों का सेवन करने वाले हैं। इसी कारण से ही भगवान महावीर ने इन्हें असंयत, अविरत, पापों का प्रतिघात (नाश) और प्रत्याख्यान न करने वाले, अशुभक्रियायुक्त, संवररहित, एकान्त हिंसक (प्राणियों को दण्ड देने वाले), एकान्त बाल (अज्ञानी) और एकान्त (भावनिद्रा में) सुप्त कहा है। वह अज्ञानी (अप्रत्याख्यानी) जीव भले ही मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग विचारपूर्वक न करता हो, तथा (हिंसा का) स्वप्न भी न देखता हो,—(अव्यक्तविज्ञानयुक्त हो) फिर भी पापकर्म (का बन्ध) करता रहता है।
SR No.003439
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages282
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size20 MB
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