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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा ६ से १. (३) हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापकर्म करने वाले लोग निःशंक होकर पापकर्म करेंगे क्योंकि उनका आत्मा तो शरीर के साथ यहीं नष्ट हो जायेगा । परलोक में उन पापकर्मों का फल भोगने के लिए उनकी आत्मा को नरक, तिर्यंच आदि दुर्गतियों में कहीं जाना नहीं पड़ेगा । इस मिथ्यावाद के फलस्वरूप सर्वत्र अराजकता अनैतिकता और अव्यवस्था फैल जायगी। __ जैनदर्शन मानता है कि आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य होते हुए भी पर्यायदृष्टि से कथंचित् अनित्य है ऐसा मानने पर ही शुभाशुभ कर्मफल व्यवस्था बन सकती है, पापकर्म करने वालों की आत्मा को दूसरी गति एवं योनि में उसका फल अवश्य भोगना पड़ेगा, पुण्यकर्म करने वालों को भी उसका शुभ मिलेगा और ज्ञान-दर्शन-चारित्र, तप आदि को उत्कृष्ट साधना करने वालों की आत्मा कर्मों से मुक्त, सिद्ध, बुद्ध, हो सकेगी। निष्कर्ष यह है कि पंचभूतवाद का सिद्धान्त मिथ्यात्वग्रस्त है, अज्ञानमूलक है, अतः कर्मबन्ध का कारण है। एकात्मवादः ६. जहा य पुढवीथूमे एगे नाणा हि दोसइ। एवं भो ! कसिणे लोए विण्णू नाणा हि दोसए ॥६॥ .. १०. एवमेगे त्ति जपंति मंदा आरंभणिस्सिया । एगे किच्चा सयं पावं तिव्वं दुक्खं नियच्छइ ॥१०॥ ६. जैसे एक ही पृथ्वीस्तूप (पृथ्वीपिण्ड) नानारूपों में दिखाई देता है, हे जीवो ! इसी तरह समस्त लोक में (व्याप्त) विज्ञ (आत्मा) नानारूपों में दिखाई देता है; अथवा (एक) आत्मरूप (यह) समस्त लोक नानारूपों में दिखाई देता है ।३७ १० इस प्रकार कई मन्दमति (अज्ञानी), 'आत्मा एक ही है, ऐसा कहते हैं, (परन्तु) आरम्भ में आसक्त रहने वाला व्यक्ति पापकर्म करके स्वयं अकेले ही दुःख प्राप्त करते हैं (दूसरे नहीं)। ३६ 'कसिणे लोए विण्णू नाणा हि दीसए'-पाठ में 'कसिणे लोए' को सप्तम्यन्त मानकर व्याप्तपद का अध्याहार करने से ऐसा अर्थ होता है। और 'कसिणे लोए' को प्रथमान्त मानकर अर्थ करने से दूसरा अर्थ होता है। चूणिकार ने 'विष्णू' शब्द का अर्थ विद्वान् अथवा विष्णु (व्यापक ब्रह्म) किया है। ३७ गाथा १० में 'एगे किच्चा""दुक्खं नियच्छई' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है 'एगे' अर्थात् कई पापकर्म करके स्वयं तीव्र दुःख पाते हैं। यहाँ आर्षवचन होने से 'नियच्छइ' में बहुवचन के बदले एकवचन का प्रयोग किया है । परन्तु 'एगे' का अर्थ 'एकाकी' करने से अर्थ हो जाता है-'आरम्भासक्त जीव पाप करके स्वयं अकेले ही तीव्र दुःख प्राप्त करता है। 'एवंमेगेत्ति' का अर्थ चूर्णिकार 'एक एव पुरुषः एवं प्रभाषन्ते' करते हैं।
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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