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________________ २२ सूत्रकृतांग - प्रथम अध्ययन - समय के जो उपादानकारण हैं, उनका गुण भी चैतन्य नहीं होने से भूतसमुदाय का गुण चैतन्य नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय के द्वारा जानी हुई बात, दूसरी इन्द्रिय नहीं जान पाती, तो फिर मैंने 'सुना भी और देखा भी देखा, चखा, सूंघा, छुआ भी, इस प्रकार का संकलन - जोड़ रूप ज्ञान किसको होगा ? परन्तु यह संकलन ज्ञान अनुभवसिद्ध है । इससे प्रमाणित होता है कि भौतिक इन्द्रियों के अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञाता है जो पाँचों इन्द्रियों द्वारा जानता है । इन्द्रियाँ करण हैं, वह तत्त्व कर्त्ता है । वही तत्त्व आत्मा है। वृत्तिकार एक शंका प्रस्तुत करते हैं - यदि पंचभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है, तो फिर मृत शरीर के विद्यमान रहते भी 'वह (शरीरी) मर गया' ऐसा व्यवहार कैसे होगा ? यद्यपि चार्वाक इस शंका का समाधान यों करते हैं कि शरीर रूप में परिणत पंचभूतों में चैतन्य शक्ति प्रकट होने के पश्चात् उन पांच भूतों से किसी भी एक या दो या दोनों के विनष्ट हो जाने पर देही का नाश हो जाता है, उसी पर से 'वह मर गया', ऐसा व्यवहार होता है, परन्तु यह युक्ति निराधार है । मृत शरीर में भी पांचों भूत विद्यमान रहते हैं, फिर भी उसमें चैतन्यशक्ति नहीं रहती, इसलिए यह सिद्ध है कि चैतन्य शक्तिमान् (आत्मा) पंचभौतिक शरीर से भिन्न है । और वह नित्य है । इस पर से इस बात का भी खण्डन हो जाता है कि पंचभूतों के नष्ट होते ही देही ( आत्मा ) का भी नाश हो जाता है । ३५ आत्मा अनुमान से, 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' उववाइए" इत्यादि आगम प्रमाण से सिद्ध होता है अनुमान प्रमाण का प्रयोग करता है, यह 'वदतो व्याघात' जैसा है । । मिट्टी की बनाई हुई ताजी पुतली में पांचों भूतों का संयोग होता है, फिर भी उसमें चैतन्य गुण . क्यों नहीं प्रकट होता ? वह स्वयं बोलती या चलती क्यों नहीं ? इससे पंचभूतों से चैतन्यगुण प्रकट होने का सिद्धान्त मिथ्या सिद्ध होता है । चैतन्य एकमात्र आत्मा का ही गुण है, वह पृथ्वी आदि पंचभूतों से भिन्न है, स्पर्शन, रसन आदि गुणों के तथा ज्ञानगुण के प्रत्यक्ष अनुभव से उन गुणों के धारक गुणी का अनुमान किया जाता है । देह विनष्ट होने के साथ आत्मा का विनाश मानना अनुचित देह के विनाश के साथ आत्मा का विनाश मानने पर तीन बड़ी आपत्तियाँ आती हैं (१) केवलज्ञान, मोक्ष आदि के लिए की जाने वाली ज्ञान, दर्शन, चारित्र की तथा तप, संयम, व्रत, नियम आदि की साधना निष्फल हो जायगी । इत्यादि प्रत्यक्ष अनुभव से, तथा " अत्थि मे आया चार्वाक एकमात्र प्रत्यक्ष को मान कर भी स्वयं (२) किसी भी व्यक्ति को दान, सेवा, परोपकार, लोक-कल्याण आदि पुण्यजनक शुभकर्मों का फल नहीं मिलेगा । ३५ (क) पंचहं संजोए अण्णगुणाणं च चेइणागुणो । पंचेंदिठाणाणं, ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णो ॥ (ख) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक १५-१६ — नियुक्ति गा०-३३
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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