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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन समय
. विवेचन-एकात्मवाद का स्वरूप और उसका खण्डन-प्रस्तुत दोनों गाथाओं में से नौवीं गाथा में दृष्टान्त द्वारा एकात्मवाद का स्वरूप बता कर, दसवीं गाथा में उसका सयुक्तिक खण्डन किया है।
प्रस्तुत गाथा में प्रतिपादित एकात्मवाद उत्तरमीमांसा (वेदान्त) दर्शनमान्य है।८ वेदान्तदर्शन का प्रधान सिद्धान्त है-इस जगत में सब कुछ ब्रह्म (शुद्ध-आत्म) रूप है, उसके सिवाय नाना दिखाई देने वाले पदार्थ कुछ नहीं हैं । अर्थात् चेतन-अचेतन (पृथ्वी आदि पंचभूत तथा जड़ पदार्थ) जितने भी पदार्थ हैं, वे सब एक ब्रह्म (आत्म) रूप हैं। यही बात शास्त्रकार ने कही है-'एवं भो कसिणे लोए विष्णू ।" नाना दिखाई देने वाले पदार्थों को भी वे दृष्टान्त द्वारा आत्मरूप सिद्ध करते हैं, जैसे-पृथ्वीसमूदायरूप पिण्ड (अवयवी) एक ही है, फिर भी नदी, समुद्र, पर्वत, रेती का टीला, नगर, घट, घर आदि के रूप में वह नाना प्रकार का दिखाई देता है, अथवा ऊँचा, नीचा, काला, पीला, भूरा, कोमल, कठोर आदि के भेद से नाना प्रकार का दिखाई देता है, किन्तु इन सब में पृथ्वीतत्त्व व्याप्त रहता है। इन सब भेदों के बावजूद भी पृथ्वी-तत्त्व का भेद नहीं होता, इसी प्रकार एक ज्ञानपिण्ड (विज्ञ-विद्वान) आत्मा ही चेतनअचेतनरूप समग्र लोक में व्याप्त है । यद्यपि एक ही ज्ञानपिण्ड आत्मा पृथ्वी, जल आदि भूतों के आकार में नाना प्रकार का दिखाई देता है, फिर भी इस भेद के कारण आत्मा के स्वरूप में कोई भेद नही होता।
__ आशय यह है कि जैसे- घड़े आदि सब पदार्थों में पृथ्वी एक ही है, उसी तरह आत्मा भी विचित्र आकृति एवं रूप वाले समान जड़-चेतनमय पदार्थों में व्याप्त है और एक ही है । श्रुति (वेद) में भी कहा है- जैसे- एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न घड़ों में अनेक दिखाई देता है, वैसे सभी भूतों में रहा हुआ एक ही (भूत) आत्मा उपाधि भेद से अनेक प्रकार का दिखाई देता है । जैसे एक ही वायु सारे लोक में व्याप्त (प्रविष्ट) है, मगर उपाधिभेद से अलग-अलग रूप वाला हो गया है, वैसे एक ही आत्मा उपाधिभेद से विभिन्नरूप वाला हो जाता है।
३८ उत्तरमीमांसा या वेदान्त के सिद्धान्त उपनिषदों में, कुछ पुराणों और अन्यवैदिक ग्रन्थों में मिलते हैं। वेद का
उपनिषदों में संग्रहीत ज्ञानकाण्ड वेदान्त कहलाता है। वेदान्तदर्शन का क्रमशः वर्णन स्वरचित ब्रह्मसूत्र (वेदान्त
सूत्र) में सर्वप्रथम बादरायण (ई० पू० ३-४ शताब्दी) ने किया, जिस पर शंकराचार्य का भाष्य है। ३६ (क) (१) 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेहनानास्ति किंचन' -ब्रह्मसूत्र (२) 'सर्वमेतदिदं ब्रह्म'
-छान्दोग्योपनिषद् ३।१४।१ (३) 'ब्रह्म खल्विदं वाव सर्वम्'
-मंत्र्युपनिषद् ४।६।३ (४) 'पुरुष एवेदं, सर्व यच्चभूतं यच्च भाव्यम् ।
-श्वेताश्वतरोप० अ०४ ब्रा०६।१३ ४० (क) एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ (ख) वायुर्यथैको मुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ।।
-कठोप० २०१०