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________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय उसमें ममत्व बुद्धि रखता हुआ पीड़ित होता है । वह मूढ़ दूसरे-दूसरे पदार्थों में मूच्छित (आसक्त) होता रहता है। ५. धन-सम्पत्ति और सहोदर भाई-बहन आदि ये सब रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं । (यह) जान कर तथा जीवन को भी (स्वल्प) जान कर जीव कर्म (बन्धन) से छूट (पृथक् हो) जाता है। ६. इन (पूर्वोक्त) ग्रन्थों-सिद्धान्तों को छोड़कर कई श्रमण (शाक्यभिक्षु आदि) और माहण (वृहस्पति मतानुयायी-(ब्राहण) [स्वरचित सिद्धान्तों में अभिनिवेशपूर्वक] बद्ध हैं। ये अज्ञानी मानव काम-भोगों में आसक्त रहते हैं। विवेचन-सर्वप्रथम बोधिप्राप्ति का संकेत क्यों ?-प्रथम सूत्र में बोधि-प्राप्ति की सर्वप्रथम प्ररणा इस लिए दी गई कि बोधप्राप्ति या सम्बोधि लाभ अत्यन्त दुर्लभ है। यह तथ्य सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, आचा रांग आदि आगमों में यत्र तत्र प्रकट किया हैं बोधिप्राप्ति इसलिए दुर्लभ है कि एकेन्द्रिय से लेकर अ पंचेन्द्रिय तक के जीवों को बोध प्राप्ति होना सम्भव नहीं है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को ही बोधि प्राप्त हो सकती है, किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रियों में जो तिर्यञ्च हैं उनमें बहुत ही विरले पशु या पक्षी को बोधि सम्भव है। जो नारक हैं, उन्हें दुःखों की प्रचुरता के कारण बोधि प्राप्ति का बहुत ही कम अवकाश है । देवों को भौतिक सुखों में आसक्ति के कारण बोधि लाभ प्रायः नहीं होता। उच्चजाति के देवों को बोधि प्राप्त होना सुगम है, परन्तु वे बोधि प्राप्त हो जाने पर भी बन्धनों को तोड़ने के लिए ब्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, तप-संयम में पुरुषार्थ नहीं कर सकते । इसलिए वहाँ बोधि लाभ होने पर भी तदनुरूप आचरण नहीं होने से उसकी पूरी सार्थकता नहीं होती। रहा मनुष्यजन्म, उसमें जो अनार्य हैं, मिथ्यात्वग्रस्त हैं, महारम्भ और महापरिग्रह में रचे-पचे हैं, उन्हें बोधि प्राप्त होना कठिन है। जिस व्यक्ति को आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, परिपूर्ण इन्द्रियाँ, परिपूर्ण अंगोपांग, स्वस्थ, सशक्त शरीर, दीर्घायुष्य प्राप्त है उसी मनुष्य के लिए बोधि प्राप्त करना सुलभ है । अतः अभी से, इसी जन्म में, बोधि प्राप्त करने का शास्त्रकार का संकेत है । बोध कैसा व कौन सा है ? –यों तो एकेन्द्रिय जीवों में भी चेतना सुषुप्त होती है, द्वीन्द्रिय से लेकर . पंचेन्द्रिय तक के जीवों में वह उत्तरोत्तर विकसित है, त्रस जीवों को भूख प्यास, सर्दी गर्मी, सन्तान पोषण, स्वरक्षण आदि का सामान्य बोध होता है परन्तु यहाँ उस बोध से तात्पर्य नहीं, यहाँ आत्मबोध से तात्पर्य है जिसे आगम की भाषा में बोधि कहा गया है। वास्तव में यहाँ 'बुज्झिज्ज' पद से संकेत किया गया है १ देखिये बोधि-दुर्लभता के आगमों में प्ररूपित उद्धरण- "संबोही खलु पेच्च दुल्लहा"-सूत्रकृ० सूत्र ८६। , "णो सुलह बोहिं च आहियं"-सूत्रकृ• सूत्र १६१ "बहुकम्म लेवलित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा तेसि"- -उत्तरा० ८।१५ । २ आत्मा से सम्बन्धित बोध का समर्थन आचाराग (श्र.० १, अ० १, सू० १) से मिलता है-"अस्थि मे आया - उववाइए ? णत्थि मे आया उववाइए ? केवा अहमंसि ? केवा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ?' श्री शंकराचार्य ने भी आत्म-स्वरूप के बोध की ओर इंगित किया है "कोऽहं ? कथमिदं ? जातं, को वै कर्ताऽस्य विद्यते ? उपादानं किमस्तीह ? विचारः सोऽयमीदृशः ॥"
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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