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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा १ से६ कि 'मैं कौन हूँ मनुष्य लोक में कैसे आया ? आत्मा बन्धन रहित होते हुए भी इस प्रकार के बन्धन में क्यों और कैसे पड़ा? इन बन्धनों के कर्त्ता कौन हैं ? बन्धनों को कौन तोड़ सकता है ? आदि सब प्रश्न आत्मबोध से सम्बन्धित हैं। बन्धनों को जान कर तोड़ो-प्रथम गाथा के द्वितीय चरण में यही बात कही गई है कि पहले बन्धनों को जानो, समझो कि वे किस प्रकार के और किन-किन कारणों के होते हैं ? इस वाक्य में यह आशय भी गर्भित है कि बन्धनों को भलीभाँति जाने बिना तुम उन्हें तोड़ोगे कैसे ? या तो तुम एक बन्धन को तोड़ दोगे, वहाँ दूसरा बन्धन सूक्ष्म रूप से प्रविष्ट हो जाएगा। गृहस्थाश्रम के बन्धन तोड़ कर साधु जीवन अंगीकार कर लेने पर भी गुरु-शिष्य, गृहस्थ, श्रावक श्राविका, विचरण क्षेत्र, वस्त्र, पात्रादि उपकरणों के मोह ममत्वरूप बन्धन प्रविष्ट हो जाने की आशंका हैं । अथवा अबन्धन को बन्धन और बन्धन को अबन्धन समझ कर विपरीत पुरुषार्थ किया जायगा । इस वाक्य में जैन दर्शन के एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त -ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः-ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है, का प्रतिपादन किया गया है। वेदान्त, सांख्य आदि कई दर्शन ज्ञान मात्र से मुक्ति बताते हैं । मीमांसा आदि दर्शन एकान्त कर्म (क्रिया) से कल्याण प्राप्ति मानते हैं। किन्तु जैन दर्शन ज्ञान और क्रिया दोनों से मक्ति लिए यहाँ स्पष्ट कहा गया है-ज्ञपरिज्ञा से पहले उन बन्धनों को जानो, समझो और प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन्हें त्याग ने का पुरुषार्थ करो । अकेला ज्ञान पंगु है और अकेली क्रिया अन्धी है। अतः बन्धन का सिर्फ ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं । इसी प्रकार अज्ञानपूर्वक उग्र तपश्चरण आदि क्रिया करना भी उचित नही है । ऐसी अन्धी क्रियाएँ बन्धनों को तोड़ने के बदले आसक्ति, मोह, प्रसिद्धि, माया, अहंकार, प्रदर्शन, आडम्बर आदि से जनित बन्धनों में और अधिक डाल देती है। इसलिए यहाँ कहा गया है-बन्धनों को परिज्ञान पूर्वक तोड़ने की क्रिया करो। दो प्रश्न : बन्धन को कैसे जानें : कैसे तोड़ें?-यही कारण है कि इस गाथा के उत्तरार्द्ध में बन्धन को जानने और तोड़ने के सम्बन्ध में दो प्रश्न किये गये हैं कि '(१) वीर प्रभु(तीर्थंकर महावीर) ने बन्धन किसे कहा है ? और (२) किसे जान कर जीव बन्धन को तोड़ता है ?" वास्तव में इन दोनों प्रश्नों के उत्तर के रूप में यह समग्र द्वितीय अंग सूत्र (सूत्रकृतांग) है । बन्धन का स्वरूप-सामान्य जीव रस्सी, शृखला, कारागार, तार, अवरोध आदि स्थूल पदार्थों को बन्धन समझता है । परन्तु वे द्रव्य बन्धन हैं जो शरीर से सम्बन्धित है। अमूर्त, अदृश्य, अव्यक्त आत्मा इस प्रकार के द्रव्य बन्धनों से नहीं बन्धता । इसलिए यहाँ आत्मा को बांधने वाले भाव बन्धन को जानने के सम्बन्ध में प्रश्न है। भाव बन्धन का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-जिसके द्वारा आत्मा परतंत्र कर दिया जाता है, वह बन्धन है। यहाँ 'बन्धन' या बन्ध जैन दर्शन मान्य कर्म सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है इसलिए वृत्तिकार ने इसका ३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १२ ४ 'बध्यते परतन्त्रीक्रियते आत्माऽनेनेति बन्धनम्' -कर्मग्रन्थ टीका
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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