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पढमं अज्झयणं 'समयो'
प्रथम अध्ययन : समय
पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक बंध-मोक्ष स्वरूप:
१. बुग्सिज्ज तिउट्टज्जा बंधणं परिजागिया।
किमाह बंधणं वोरे ? किं वा जागं तिउट्टई ॥१॥ २. चित्तमंतमचित्तं वा परिगिझ किसामवि।
अन्नं वा अणुजाणाति एवं दुक्खा ण मुच्चई ॥२॥ ३. सर्य तिवायए पाणे अदुवा अण्णेहिं धायए।
हणतं वाऽणुजाणाइ वेरं वड्ढेति अप्पणो ॥३॥ ४. जस्सि कुले समुप्पन्ने जेहि वा संवसे गरे।
ममाती लुप्पती बाले अन्नमन्नेहिं मुच्छिए ॥४॥ ५. वित्तं सोयरिया चेव सम्वमेतं न ताणए ।
संखाए जीवियं चेव कम्मणा उ तिउट्टति ॥५॥ ६. एए गंथे विउक्कम्म एगे समण-माहणा।
अयाणंता विउस्सिता सत्ता कामेहिं माणवा ॥६॥ १. मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिए। बन्धन का स्वरूप जान कर उसे तोड़ना चाहिए। (श्री अम्बूस्वामी ने सुधर्मास्वामी से पूछा) वीर प्रभु ने किसे बन्धन कहा है ? किसे जान कर जीव बन्धन को तोड़ता है ?
२. [श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-]जो मनुष्य सचित्त (द्विपद चतुष्पद आदि सचेतन प्राणी] हो अथवा अचित्त (चैतन्य रहित सोना चांदी आदि जड़) पदार्थ अथवा भुस्सा आदि तुच्छ वस्तु हो, या थोड़ा-सा भी परिग्रह के रूप में रखता है अथवा दूसरे के परिग्रह रखने की अनुमोदना करता है [इस प्रकार] वह दुःख से मुक्त नहीं होता।
३, जो व्यक्ति स्वयं (किसी प्रकार से) प्राणियों का वध करता है अथवा दूसरों से वध कराता है या प्राणियों का वध करते हुए अन्य व्यक्तियों का अनुमोदन करता है वह मारे जाने वाले प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है (उपलक्षण से-अपनी आत्मा के साथ शत्रुता बढ़ाता है)।
४. मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न हुआ है, और जिसके साथ निवास करता है वह अज्ञ (बाल) जीव