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द्वितीय उद्देशक में नियतिवाद, अज्ञानवाद, चार प्रकार से बद्ध कर्म उपचित (गाढ) नहीं होता, इस प्रकार के बौद्धों के वाद का वर्णन है । *
[] चतुर्थ उद्दे शक में पर-वादियों की असंयमी गृहस्थों के आचार के साथ सदृशता बताई गई है । अन्त में अविरतिरूप कर्मबन्धन से बचने के लिए अहिंसा, समता, कषायविजय आदि स्वसमय (स्वसिद्धान्त) का प्रतिपादन किया गया है।
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तृतीय उद्दे शक में आधाकर्म आहार सेवन से होने वाले दोष बताये गए हैं। इसके पश्चात् विभित्र कृतवादों (जगत्-कर्तृत्ववादों), तथा स्व-स्वमत से मोक्षप्ररूपकवाद का निरूपण है ।
स्व- समय प्रसिद्ध कर्मबन्धन के ५ हेतुओं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग की दृष्टि से पर समय (दूसरे दर्शनों, वादों और मतों के आचार-विचार ) को बन्धनकारक बता कर उस बन्धन से छुटने का स्व-समय प्रसिद्ध उपाय इस अध्ययन में वर्णित है । "
प्रस्तुत प्रथम अध्ययन सूत्र संख्या १ से प्रारम्भ होकर सूत्र ८८ पर समाप्त होता है ।
सूत्रकृतांग में वर्णित वादों के साथ बौद्ध ग्रन्थ सुत्तपिटक के दीघनिकायान्तर्गत ब्रह्मजाल सूत्र में वर्णित ६२ वादों की क्वचित् क्वचित् समानता प्रतीत होती है।
४ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० ६१
५ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० ३२ (पूर्वा)
६ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० ३२ ( उत्तरार्द्ध )
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(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ११ (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ११ (ख) सूत्रकृतांग शीलक वृत्ति पत्रांक ११
७ (क) सूत्रकृतांग सूत्र (सूयगडंग सुत्त) मुनि जम्बूविजय जी सम्पादित प्रस्तावना पृ० ६-७
(ख) सूत्रकृतांग ( प्र० श्र०) पं० मुनि हेमचन्द्र जी कृत व्याख्या - उपोद्घात पृ० २०
सूयगडंग सुत, मुनि जम्बूविजय जी सम्पादित प्रस्तावना पृ० ६-७