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सूत्रकृतांग- चौदहवाँ अध्ययन-पन्थ
निम्नलिखित प्रेरणा सूत्र इन गाथाओं से फलित होते हैं - (१) गुरुकुलवासी साधु विषय, निद्रा, विकथा, कषाय आदि प्रमादों को पास में न फटकने दे, (२) गृहीत महाव्रतों के पालन आदि किसी विषय में शंका या भ्रान्ति हो तो गुरुकृपा से साधक उससे पार हो जाए, (३) प्रमादवश साधुचर्या में कहीं भूल हो जाए और उसे कोई दीक्षा ज्येष्ठ, वयोवृद्ध या लघु साधक अथवा समवयस्क साधक सुधारने के लिए प्रेरित करें या शिक्षा दें तो गुरुकुलवासी साधु उसे सम्यक् प्रकार से स्थिरता के साथ स्वीकार कर ले, किन्तु प्रतिवाद न करे, अन्यथा वह संसार के प्रवाह में बह जाएगा, उसे पार नहीं कर सकेगा, (४) साध्वाचारपालन में कहीं त्रुटि हो जाने पर गृहस्थ या मिथ्यादृष्टि जैनागमविहित आचार की दृष्टि से शिक्षा दे, अथवा कोई लघु वयस्क या वृद्ध कुत्सिताचार में प्रवृत्त होने पर सावधान करे, यही नहीं, तुच्छ कार्य करने वाली घटदासी भी किसी अकार्य से रोके, अथवा कोई यह कहे कि यह कार्य गृहस्थ योग्य भी नहीं है, ऐसी स्थिति में गुरुकुलवासी साधु उन पर क्रोध, प्रहार, आक्रोश या पीड़ाजनक शब्द प्रयोग न करे, अपितु प्रसन्नतापूर्वक अपनी भूल स्वीकार करे, (५) उन बुधजनों या हितैषियों की शिक्षा को अपने लिए श्रेयस्कर समझे, (६) उनको उपकारी मानकर उनका आदर-सत्कार करे, (७) गुरुकुलवास में विधिवत् शिक्षा ग्रहण न करने से धर्म में अनिपुण शिष्य सूत्र, अर्थ एवं श्रमणधर्म के तत्त्व को नहीं जानता, जबकि गुरु शिक्षाप्राप्त वही साधक जिनवचनों के अध्ययन से विद्वान् होकर सभी पदार्थों का यथार्थ स्वरूप स्पष्टतः जान लेता है, (८) गुरुकुलवासी साधक किसी भी प्राणी की हिंसा न हो, इस प्रकार से यतना करे, प्राणियों पर जरा भी द्वेष न करता हुआ संयम (पंच महाव्रतादि रूप ) में निश्चल रहे, (८) योग्य अवसर देखकर वह आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में पूछे, ( 8 ) आगम ज्ञानोपदेष्टा आचार्य की सेवा-भक्ति करे, उनके
द्वारा उपदिष्ट सम्यग्दर्शनादि रूप समाधि को हृदयंगम करे, (१०) गुरुकुलवास काल में गुरु से जो कुछ
सुना, सीखा, हृदयंगम किया, उस समाधिभूत मोक्ष मार्ग में स्थित होकर त्रिकरण त्रियोग से स्व-पर- त्राता बने । ( ११ ) समिति गुप्ति आदि रूप समाधिमार्गों में स्थिर हो जाने से गुरुकुलवासी साधक को शान्तिलाभ और समस्त कर्मक्षय का लाभ होता है, यदि वह कदापि प्रमादासक्त न हो, (१२) गुरुकुलवासी साधक उत्तम साध्वाचार या मोक्षरूप अर्थ को जान-सुनकर प्रतिभावान् एवं सिद्धान्त विशारद बन जाता है, (१३) फिर वह मोक्षार्थी साधक तप एवं संयम को उपलब्ध करके शुद्ध आहार से निर्वाह करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
निष्कर्ष - गुरुकुलवास करने वाले साधक का सर्वांगीण जीवन-निर्माण एवं विकास तभी हो सकता हैं, जब वह गुरुकुलवास में अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति एवं चर्या को गुरु के अनुशासन में करे, अप्रमत्त होकर अपनी भूल सुधारता हुआ बाह्य आभ्यन्तर तप, संयम तथा क्षमा, मार्दव आदि श्रमणधर्म का अभ्यास करे । गुरुकुलवासकालीन शिक्षा में अनुशासन, प्रशिक्षण, उपदेश, मार्गदर्शन, अध्ययन, अनुशीलन आदि 'प्रक्रियाओं का समावेश है ।
पाठान्तर और व्याख्या- 'तेणावि' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है- 'तेणेव मे'; व्याख्या की गयी हैउस असत् कार्य करने वाले द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी कुपित नहीं होना चाहिए । 'दवियरस' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है - 'दिविअस्स'; व्याख्या की गई है - दिविअ = (द्वि- वीत) का अर्थ है - दोनों से राग
५ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २४४ से २४७ तक का सारांश