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________________ गाथा ५८५ से ५६६ चाहिए, जिस तरह मार्गभ्रष्ट पुरुष सही मार्ग पर चढ़ाने और बताने वाले व्यक्ति की विशेष सेवा-पूजा आदर सत्कार करता है। इस विषय में वीर प्रभु ने यही उपमा (तुलना) बताई है। अतः पदार्थ (परमार्थ) को समझकर प्रेरक के उपकार (उपदेश) को हृदय में सम्यक्रूप से स्थापित करे। ___५६१-५६२. जैसे अटवी आदि प्रदेशों से भलीभांति परिचित मार्गदर्शक (ता) भी अंधेरी रात्रि में कुछ भी न देख पाने के कारण मार्ग को भली-भाँति नहीं जान पाता; परन्तु वही पुरुष (मार्गदर्शक) सूर्य के उदय होने से चारों ओर प्रकाश फैलने पर मार्ग को भलीभाँति जान लेता है। इसी तरह धर्म में अनिपुण-अपरिपक्व शिष्य भी सूत्र और अर्थ को नहीं समझता हुआ धर्म (श्रमणधर्म तत्व) को नहीं जान पाता; किन्तु वही अबोध शिष्य एक दिन जिनवचनों के अध्ययनअनुशीलन से विद्वान हो जाता है। फिर वह धर्म को इस प्रकार स्पष्ट जान लेता है जिस प्रकार से होने पर आँख के द्वारा व्यक्ति घट-पट आदि पदार्थों को स्पष्ट जान-देख लेता है। ५६३. गुरुकुलवासी एवं जिनवचनों का सम्यक् ज्ञाता साधु ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी रहते हैं, उनकी हिंसा जिस प्रकार से न हो, उस प्रकार की यतना (यत्न) करे तथा संयम में पुरषार्थ करे एवं उन प्राणियों पर लेशमात्र भी द्वष न करता हुआ संयम में निश्चल रहे। ५६४. गुरुकुलवासी साधु (प्रश्न करने योग्य) अवसर देख कर सम्यग्ज्ञान सम्पन्न आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे। तथा मोक्षगमन योग्य (द्रव्य) सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के आगम (ज्ञान-धन) को बताने वाले आचार्य की पूजा-भक्ति करे। आचार्य का आज्ञाकारी शिष्य उनके द्वारा उपदिष्ट केवलिप्ररूपति सम्यग्ज्ञानादिरूप समाधि को भलीभांति जानकर उसे हृदय में स्थापित करे। __५६५. इसमें (गुरुकुल वास काल में) गुरु से जो उपदेश सुना और हृदय में भलीभाँति अवधारित किया, उस समाधिभूत मोक्षमार्ग में अच्छी तरह स्थित होकर मन-वचन-काया से कृत, कारित और अनुमोदित रूप से स्व-पर-त्राता (अपनी आत्मा का और अन्य प्राणियों का रक्षक) बना रहे इन समिति-गुप्तिआदि रूप समाधिमार्गों में स्थिर हो जाने पर सर्वज्ञों ने शान्तिलाभ और कर्म निरोध (समस्त कर्मक्षय) बताया है। वे त्रिलोकदर्शी महापुरुष कहते हैं कि साधु को फिर कभी प्रमाद का संग नहीं करना चाहिए। ५६६. गुरुकुलवासी वह साधु उत्तम साधु के आचार को सुनकर अथवा स्वयं अभीष्ट अर्थ-मोक्ष रूप अर्थ को जानकर गुरुकुलवास से प्रतिभावान् एवं सिद्धान्त विशारद (स्वसिद्धान्त का सम्यग्ज्ञाता होने से श्रोताओं को यथार्थ-वस्तू-तत्त्व के प्रतिपादन में निपुण) हो जाता है। फिर सम्यग्ज्ञान आदि से अथवा मोक्ष से प्रयोजन रखने वाला (आदानार्थी) वह साधु तप (व्यवदान) और मौन (संयम) को (ग्रहण रूप एवं आसेवन रूप शिक्षा द्वारा) उपलब्ध करके शुद्ध (निरुपाधिक उद्गमादि दोष रहित) आहार से निर्वाह करता हुआ समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। विवेचन-गुहकुलवासी साधु द्वारा शिक्षा-ग्रहण विधि-प्रस्तुत १२ सूत्र गाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने विभिन्न पहलुओं से गुरुकुलवासी साधु द्वारा ली जाने वाली शिक्षा की विधि बताई है। शिक्षा ग्रहण विधि
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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