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सूत्रकृतांग-चौदहवां अध्ययन-अन्य ५६४ कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं । ___ तं सोयकारी य पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहि ॥१५।। ५९५ अस्सि सुठिच्चा तिविहेण तायो, एतेसु या संति निरोहमाहु ।
ते एवमक्खंति तिलोगदंसी, ण भुज्जमेत ति पमायसंगं ।।१६॥ ५६६ णिसम्म से भिक्खु समोहमठें, पडिभाणवं होति विसारते या।
आयाणमट्ठी वोदाण मोणं, उवेच्चा सुद्धण उवेति मोवखं ॥१७॥ ५८५. ईर्यासमिति आदि से युक्त साधु मधुर या भयंकर शब्दों को सुनकर उनमें मध्यस्थ-रागद्वेष रहित होकर संयम में प्रगति करे, तथा निद्रा-प्रमाद एवं विकथा-कषायादि प्रमाद न करे। (गुरुकुल निवासी अप्रमत्त) साधु को कहीं किसी विषय में विचिकित्सा-शंका हो जाए तो वह (गुरु से समाधान प्राप्त करके) उससे पार (निश्शंक) हो जाए।
५८६. गुरु सान्निध्य में निवास करते हुए साधु से किसी विषय में प्रमादश भूल हो जाए तो अवस्था और दीक्षा में छोटे या बड़े साधु द्वारा अनुशासित (शिक्षित या निवारित) किये जाने पर अथवा भूल सुधारने के लिए प्रेरित किये जाने पर जो साधक उसे सम्यक्तया स्थिरतापूर्वक स्वीकार नहीं करता, वह संसार-समुद्र को पार नहीं कर पाता।"
५८४-५८८. साध्वाचार के पालन में कहीं भूल होने पर परतीथिक, अथवा गृहरथ द्वारा आर्हत् आगम विहित आचार की शिक्षा दिये जाने पर या अवस्था में छोटे या वद्ध के द्वारा प्रेरित किये जाने पर, यहाँ तक कि अत्यन्त तुच्छ कार्य करने वाली घटदासी (घड़ा भरकर लाने वाली नौकरानी) द्वारा अकार्य के लिए निवारित किये जाने पर अथवा किसी के द्वारा यह कहे जाने पर कि "यह कार्य तो गृहस्थाचार के योग्य भी नहीं है, साधु की तो बात ही क्या है ?
इन (पूर्वोक्त विभिन्न रूप से) शिक्षा देने वालों पर साधु क्रोध न करे, (परमार्थ का विचार करके) न ही उन्हें दण्ड आदि से पीड़ित करे, और न ही उन्हें पीड़ाकारी कठोर शब्द कहे; अपितु 'मैं भविष्य में ऐसा (पूर्वऋषियों द्वारा आचरित) ही करूँगा' इस प्रकार (मध्यस्थवृत्ति से) प्रतिज्ञा करे, (अथवा अपने अनुचित आचरण के लिए 'मिच्छामि दुक्कड़' के उच्चारणपूर्वक आत्म-निन्दा के द्वारा उससे निवृत्त हो) साधु यही समझे कि इसमें (प्रसत्रतापूर्वक अपनी भूल स्वीकार करके उससे निवृत्त होने में) मेरा ही कल्याण है । ऐसा समझकर वह (फिर कभी वैसा) प्रमाद न करे।
५८९. जैसे यथार्थ और अयथार्थ मार्ग को भली-भांति जानने वाले व्यक्ति घोर वन में मार्ग भूले हुए दिशामूढ़ व्यक्ति को कुमार्ग से हटा कर जनता के लिए हितकर मार्ग बता देते (शिक्षा देते) हैं, इसी तरह मेरे लिए भी यही कल्याणकारक उपदेश है, जो ये वृद्ध, बड़े या तत्त्वज्ञ पुरुष (बुधजन) मुझे सम्यक् अच्छी शिक्षा देते हैं।
५६०. उस मूढ़ (प्रमाद वश मार्ग भ्रष्ट) पुरुष को उस अमूढ़ (मार्ग दर्शन करने या जाग्रत करने वाले पुरुष) का उसी तरह विशेष रूप से (उसका परम उपकार मानकर) आदर-सत्कार (पूजा) करना