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गाथा ५६७ से ६०६
और द्वेष से रहित। 'समोहम?' के बदले वृत्तिकारसम्मत पाठान्तर है-'समीहिय?"; अर्थात्-सम्+ ईहित+अभीष्ट=मोक्ष रूप अर्थ को। 'सद्धण उवेतिमोक्ख' के बदले पाठान्तर है-'सद्धन उवेतिमार'तप, संयम आदि से आत्मा शुद्ध होने पर या शुद्ध मार्ग का आश्रय लेने पर साधक मार अर्थात् संसार को अथवा मृत्यु को नहीं प्राप्त करता। गुरुकुलवासी साधु द्वारा भाषा-प्रयोग के विधि-निषेध सूत्र
५६७ संखाय धम्मं च वियागरेति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति।
ते पारगा दोण्ह वि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरंति ॥१८॥ ५९८ नो छादते नो वि य लसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च ।
ण यावि पण्णे परिहास कुज्जा, ण याऽऽसिसावाद वियागरेज्जा ॥१॥ ५६६ भूताभिसंकाए दुगुंछमाणो, ण णिव्वहे मंतपदेण गोत्तं ।
___ण किंचि मिच्छे मणुओ पयासु, असाहुधम्माणि ण संवदेज्जा ॥२०॥ ६०० हासं पि णो संधये पावधम्म, ओए तहि फरसं वियाणे । ____नो तुच्छए नो व विकंथतिज्जा, अगाइले या अकसाइ भिक्खू ॥२१॥ ६०१ संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू, विभज्जवादं च वियागरेज्जा।
भासादुगं धम्म समुट्ठितेहि, वियागरेज्जा समया सुपण्णे ।।२२।। ६०२ अणुगच्छमाणे वितहं भिजाणे, तहा तहा साहु अकक्कसेणं ।
ण कत्थती भास विहिंसएज्जा, निरुद्धगं वा वि न दोहएज्जा ॥२३॥ ६०३ समालवेज्जा पडिपुण्णमासी, निसामिया समिया अट्ठदंसी।
आणाए सुद्ध वयणं भिउजे, भिसंधए पावविवेग भिक्खू ॥२४।। ६०४ अहाबुइयाई सुसिक्खएज्जा, जएज्ज या णातिवेलं वदेज्जा।
से दिट्ठिमं दिठ्ठि ण लूसएज्जा, से जाणति भासिउं तं समाहिं ।।२५।। ६०५ अल्सए णो पच्छण्णभासी, णो सुत्तमत्थं च करेज्ज ताई।
सत्थारभत्ती अणुवीति वायं, सुयं च सम्म पडिवातएज्जा ॥२६॥
६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २४५ से २४७ तक
(ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० १०७-१०८