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सूत्रकृतांग - चौदहवाँ अध्ययन - प्रत्ये
इस प्रकार जो साधक अभी श्रुत चारित्र धर्म में पुष्ट - परिपक्व नहीं है, ऐसे शैक्ष (नवदीक्षित शिष्य) को अपने गच्छ (संघ) से निकला या निकाला हुआ तथा वश में आने योग्य जानकर अनेक पाषण्डी परतीर्थिक पंख न आये हुए पक्षी के बच्चे की तरह उसका हरण कर लेते (धर्म भ्रष्ट कर देते हैं।
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५८ ३. गुरुकुल में निवास नहीं किया हुआ साधकपुरुष अपने कर्मों का अन्त नहीं कर पाता, यह जाकर गुरु के सान्निध्य में निवास और समाधि की इच्छा करे । मुक्तिगमनयोग्य ( द्रव्यभूत - निष्कलंक चारि सम्पन्न ) पुरुष के आचरण (वृत्त) को अपने सदनुष्ठान से प्रकाशित करे । अतः आशुप्रज्ञ साधक गच्छ से या गुरुकुलवास से बाहर न निकले ।
५८४. गुरुकुलवास से साधक स्थान - ( कायोत्सर्ग), शयन ( शय्या - संस्तारक, उपाश्रय शयन आदि ) तथा आसन, (आसन आदि पर उपवेशन - विवेक, गमन-आगमन, तपश्चर्या आदि) एवं संयम में पराक्रम के (अभ्यास) द्वारा सुसाधु के समान आचरण करता है । तथा समितियों और गुप्तियों के विषय में (अभ्यस्त होने से ) अत्यन्त प्रज्ञावान् ( अनुभवी ) हो जाता है, वह समिति - गुप्ति आदि का यथार्थस्वरूप दूसरों को भी बताता है ।
विवेचन - प्रत्यत्यागी नव प्रवजित के लिए गुरुकुलवास का महत्व और लाम- प्रस्तुत पांचसूत्रों में साधु के लिए गुरुकुलवास का महत्व और लाभ निम्नोक्त पहलुओं से बताया गया हैं - ( १ ) नवदीक्षित साधु को ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा से निपुण होने के लिए गुरुकुल में रहना आवश्यक है, (२) गुरु या आचार्य के सान्निध्य में रह कर आज्ञा पालन विनय; सेवा-शुश्रुषा आदि का सम्यक् प्रशिक्षण ले । (३) आचार्य के आदेशनिर्देश या संयम के पालन में प्रमाद न करे । ( ४ ) पंख आए बिना ही उड़ने के लिए मचलने वाले पक्षी के बच्चे को मांस-लोलुप ढंकादि पक्षी घर दबाते हैं, वैसे ही गुरु के सान्निध्य में शिक्षा पाए बिना ही गच्छनिर्गत अपरिपक्व साधक को अकेला विचरण करते देख अन्यतीर्थिक लोग बहकाकर मार्गभ्रष्ट कर सकते हैं । (५) गुरुकुलवास न करने वाला स्वच्छन्दाचारी साधक कर्मों का अन्त नहीं कर पाता, (६) अतः साध अनेक गुणवर्द्धक गुरुकुलवास में रहकर समाधि प्राप्त करे । ( ७ ) पवित्र पुरुष के आचरण को अपने सदनुष्ठान से प्रकाशित करे, (८) गुरुकुलवास से साधक कायोत्सर्ग, शयन, आसन, गमनागमन, तपश्चरण जप, संयम-नियम, त्याग आदि साध्वाचार में सुसाधु ( परिपक्व साधु ) के उपयुक्त बन जाता है । वह
गुप्त आदि के अभ्यास में दीर्घं दर्शी, अनुभवी और यथार्थ उपदेष्टा बन जाता है । '
दो प्रकार की शिक्षा - गुरु या आचार्य के सान्निध्य में रह कर दो प्रकार की शिक्षा प्राप्त की जाती है - ( १ ) ग्रहण शिक्षा और (२) आसेवन शिक्षा । ग्रहण शिक्षा में शास्त्रों और सिद्धान्तों के अध्ययन और रहस्य का ग्रहण किया जाता है आसेवन शिक्षा में महाव्रत, समिति, गुप्ति, ध्यान, कायोत्सर्ग, जप, तप, त्याग, नियम आदि चारित्र का अभ्यास किया जाता है । वास्तव में इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं से साधु का सर्वांगीण विकास हो जाता है । "
१ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २४२-२४३ का सारांश
२ सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक २४१