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गाथा ५४५ से ५४८
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छलायतणं च कम्म-इसकी दूसरी व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है-अथवा जिसके षट्
- उपादानकारण आश्रवद्वाररूप हैं, अथवा श्रोत्रादि इन्द्रिय नोइन्द्रिय (मन) रूप हैं, वह कर्म षडायतनरूप है, इस प्रकार बौद्ध कहते हैं । बौद्धग्रन्थ सुत्तपिटक, संयुक्त निकाय में षडायतन (सलायतन) का उल्लेख है।
पाठान्तर और व्याख्या-वंशो णियते के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'बजे - णितिए' वन्ध्य का अर्थ है- शून्य 'णितिए' का अर्थ है-नित्यकाल । लोक नित्य एवं सर्वशून्य है। एकान्त क्रियावाद और सम्यक क्रियावाद एवं उसके प्ररूपक
५४५. ते एवमक्खंति समेच्च लोग, तहा तहा समणा माहणाय ।
सयंकडं णण्णकडं च दुक्खं, आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥११॥ ५४६. ते चक्खु लोगसिह णायगा तु, मग्गाऽणुसासंति हितं पयाणं ।
तहा तहा सासयमाहु लोए, जंसो पया माणव ! संपगाढा ॥१२॥ ५४७. जे रक्खसावा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधवा य काया।
आगासगामी य पुढोसिया य, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ॥१३॥ ५४८. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्छ ।
जंसी विसन्ना विसयंगणाहिं दुहतो वि लोयं अणुसंचरति ॥१४॥ ५४५. वे श्रमण (शाक्यभिक्षु) और माहन (ब्राह्मण) अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार लोक को जानकर उस-उस क्रिया के अनुसार फल प्राप्त होना बताते हैं । तथा (वे यह भी कहते हैं कि) दुःख स्वयंकृत (अपना ही किया हुआ) होता है, अन्यकृत नहीं। परन्तु तीथंकरो ने विद्या (ज्ञान) आरचरण (चारित्र-क्रिया) से मोक्ष कहा है।
___ ५४६ इस लोक में तीर्थंकर आदि नेत्र के समान हैं, तथा वे (शासन) नायक (धर्म नेता या प्रधान) हैं । वे प्रजाओं के लिए हितकर ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं । इस चतुर्दशरज्ज्वात्मक या
६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २१४ से २१८ तक का सारांश (ख) 'बद्धा मुक्ताश्च कथ्यन्ते, मुष्टि-ग्रन्थि-कपोतकाः । न चान्ये द्रव्यतः सन्ति, मुष्टि-ग्रन्थि-कपोतकाः ॥'
-सूत्रकृतांस शीलांक वृत्ति में उद्धत ७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २१६ (ख) तुलना-'अविज्जपच्चया""नामरूपपच्चया सलायतन पटिच्च समुप्पादो। ""कतमं च, भिक्खवे, सला
यतनं ? चक्खायतनं, सोतायतनं, घाणायतनं, जिह्वायतनं, कायायतनं, मनायतनं । इदं वुच्चति, भिक्खवे, सलायतनं ।
-सुत्तपिटक संयुत्त निकाय पालि (भा० २) पृ० ३.५